Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ महाकवि पुष्पदन्त [ लेखक - श्री पं० नाथूराम प्रेमी ] www m [गत किरण से श्रागे ] I ८-समय- विचार महापुराणकी उत्थानिकामें कविने जिन सब ग्रंथों और प्रन्थकर्ताओं का उल्लेख किया है, " उनमें सबसे पिछले ग्रन्थ धवल और जयधवल हैं पाठक जानते हैं कि वीरसेन स्वामीके शिष्य जिनसेन ने अपने गुरु की अधूरी छोड़ी हुई टीका - जयधवला १ अकलंक, कपिल (सांख्यकार), कणचर या कणार (वैशेषिकदर्शनकर्त्ता ), द्विज (वेदपाठक), सुगत (बुद्ध), पुरंदर ( चार्वाक ), दन्तिल, विशाख (संगीतशास्त्रकर्ता ), भरत (नाट्यशास्त्रकार), पतंजलि, भारवि, व्यास, कोइल (कुष्माण्ड कवि), चतुर्मुख, स्वयंभु, श्रीहर्षद्रोण, बाण, धवल जयधवलसिद्धान्त, रुद्रट्, और यशश्चिन्ह, इतनोंका उल्लेख किया गया है । इनमें से अकलंक, चतुर्मुख और स्वयंभु जैन हैं । अकलंक जयधवलाकार जिनसेन से पहले हुए हैं । चतुर्मुख और स्वयंभूका ठीक समय अभी तक निश्चित नहीं हुश्रा है परन्तु स्वयंभू अपने पउमचरियमें श्राचार्य (रविषेणका उल्लेख करते हैं जिन्होंने वि० सं० ७३३ में पद्मपुराण लिखा था)। इससे उनसे पीछेके हैं। उन्होंने चतुमुखका भी स्मरण किया है। स्वयंभू अपभ्रंश भाषाके ही महाकवि थे । इनके पउमचरिउ (पद्मचरित ) और हरिवंशपुराण उपलब्ध हैं। उनका एक छन्दशास्त्र भी है, जिसके पहले तीन प्रकरण प्रो० वेलणकरने JBBRAS 1935 PP 18- 58 में प्रकाशित किये हैं। पंचमिचरियं' नामका ग्रन्थ भी उनका बनाया हुआ है, जो अभी तक कहीं प्राप्त नहीं हुआ है। स्वयंभू यापनीयसंघके अनुयायी थे, ऐसा महापुराण- टिप्पण से मालूम होता है f २ उबुझउ श्रयमसद्दधामु, सिद्धंत धवलु जयधवलुणामु । टीकाको श० सं० ७५९ में राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष ( प्रथम ) के समय में समाप्त की थी । अतएव यह निश्चित है कि पुष्पदन्त उक्त संवत् के बाद ही किसी समय हुए हैं, पहले नहीं । रुद्र का समय श्रीयुत् कारणे और दे के अनुसार ई० सन् ८०० – ८५० के अर्थात् श० सं० ७२२ और ७७२ के बीच हैं। इससे भी लगभग उपर्युक्त परिणाम ही निकलता है । अभी हाल ही डा० ए० एन० उपाध्येको अपभ्रंश भाषाका 'धम्मपरिक्खा नामका ग्रंथ मिला है जिस के कर्त्ता बुध (पंडित) हरिषेण हैं, जो धक्कड़वंशीय गोबर्द्धन के पुत्र और सिद्धसेन के शिष्य थे । व मेवाड़ देशके चितौड़ के रहनेवाले थे और उसे छोड़कर कार्यवश अचलपुर चले गये थे । वहांपर उन्होंने वि०सं० ३ श्राचार्य श्रमितगतिकी संस्कृत 'धर्मपरीक्षा' इसके बाद बनी है । हरिषेणकी धर्मपरीक्षा के भी पहले जयराम नामक कविका गाथावद्ध कोई ग्रन्थ था जिसके श्राधारसे उक्त धम्मपरिक्खा लिखी गई है जा जयरामें श्रासि विरइय गाइपबंधें । सामि धम्मपरिक्व सा पद्धड़िया बंधे ॥ संस्कृत धर्मपरीक्षा इन दोमेंसे किसी एकका अनुवाद होना चाहिए । ४इद्द मेवाडदेसे जणसंकुले, सिरि उजपुरणिगय धक्कडकुले ।'' गोवद्धणु णामें उप्पण्णश्रो, जो सम्मत्तरयणसं पुण्णश्रो । तो गोवद्धा सुपि गुणवद्द, जा जिणवर पय णिच्च विपणवइ । ताए जाणिउ हरिसेण णामसुश्रो, जो संजाउ विवुहकइविस्सुश्रो

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