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अनेकान्त
[ वर्षे ४
इन सब प्रमाणों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते भरतकी प्रशंसाके हैं । ग्रन्थरचनाक्रमसे जिस तिथिको हैं कि श० सं०८८१ में पुष्पदन्त मेलपाटीमें भरत जो संधि प्रारंभकी गई, उसी तिथिको उसमें दिया महामात्यसे मिले और उनके अतिथि हुए । इसी हुआ पद्य निर्मित नहीं हुआ है। यही कारण है कि साल उन्होंने महापराण शुरू करके उसे श० सं० सभी प्रतियोंमें ये पद्य एक ही स्थान पर नहीं मिलते ८८७ में समाप्त किया। इसके बाद उन्होंने नागकुमार हैं। एक पद्य एक प्रतिमें जिस स्थान पर है, दूसरी चरित और यशोधर चरित बनाये । यशोधर चरित प्रति में उस स्थान पर न होकर किसी और स्थान पर की समाप्ति उस समय हुई जब मान्यखेट लूटा जा है। किसी किसी प्रतिमें उक्त पद्य न्यूनाधिक भी हैं। चुका था। यह श० सं०८९४ के लगभगकी घटना अभी बम्बईके सरस्वती-भवनकी प्रतिमें हमें एक है। इस तरह वे ८८१ से लेकर कमसे कम ८९४ तक पूग पद्य और एक अधूरा पद्य अधिक भी मिला है* लगभग तेरह वर्ष मान्यखेटमें महामात्य भरत और जो अन्यप्रतिया में नहीं देखा गया। ननके सम्मानित अतिथि होकर रहे, यह निश्चित है। यशोधरचरितकी दूसरी तीसरी और चौथी
सन्धियोंमें भी इसी तरह के तीन संस्कृत पद्य नन्नकी उसके बाद वे और कब तक जीवित रहे, यह नहीं
प्रशंसाके हैं जो अनेक प्रतियों में हैं ही नही । इमसे कहा जा सकता।
यही अनुमान करना पड़ता है कि ये सभी या अधि___ बुधहरिषेणकी धर्मपरीक्षा मान्यखेटकी लूटके कांश पद्य भिन्न भिन्न समयोंमें रचे गये हैं और कोई पन्द्रह वर्ष बादकी रचना है। इतने थोड़े ही प्रतिलिपियाँ कगते समय पीछे से जोड़े गये हैं । सरज़ समयमें पुष्पदन्तकी प्रतिभाकी इतनी प्रसिद्धिहोचकी यह कि 'दीनानाथधनं' आदि पद्य मान्यखेटकी
लटके बाद लिखा गया और उसके बाद जो प्रतियाँ थी । हरिषेण कहते हैं, पुष्पदन्त मनुष्य थोड़े ही हैं, लिखी गई, उनमें जोड़ा गया निश्चय ही यह पद्य उसके उन्हें सरस्वती देवी कभी नहीं छोड़ती।
पहले जो प्रतियाँ लिखी जाचुकी होंगी उनमें न होगा। एक शंका
इस प्रकारकी एक प्रति महापराणके सम्पादक महापुराणकी ५० वीं सन्धिके प्रारंभमें जो 'दीना- डा० पी० एल० वैद्यको नाँदणी ( कोल्हापुर ) के श्री नाथधन' आदि संस्कृत पद्य दिया है और पृ० ४५७ तात्या साहब पाटीलसे मिली है जिसमें उक्त पद्य के फुटनोटमें उद्धत किया जा चुका है, और जिसमें नहीं हैं । ८९४ के पहलेकी लिखी हुई इस तरहकी मान्यखेटके नष्ट होने का संकेत है, वहश०सं०८९४ के * हरति मनसो मोई द्रोहं महाप्रियजंतुजं । बादका है और महापुराण ८८७ में ही समाप्त होचुका
भवतु भविनां दंभारंभः प्रशांतिकृतो ।
जिनवरकथा ग्रन्थप्रस्नांगमितस्त्वया । था । तब शंका होतो है कि वह उसमें कैसे आया ?
कथय कमर तोयस्तीते गुणान् भरतप्रभो । ___ इसका समाधान यह है कि उक्त पद्य ग्रन्थका
-४२ वीं सन्धिके बाद अविच्छेद्य अंग नहीं है। इस तरहके अनेक पद्य अाकल्यं भरतेश्वरस्तु जयतायेनादरात्कारिता । महापुराणकी भिन्न भिन्न सन्धियोंके प्रारंभमें दिये।
श्रेष्ठायं भुवि मुक्तये जिनकथा तत्त्वामृतस्यन्दिनी।
पहला पद्य बहुत ही अशुद्ध है । -४३ वीं संधिके बाद गये हैं। ये सभी मुक्तक हैं, भिन्न भिन्न समयमें रचे ते
x देखो महापुराण प्र. खं०, डा० पी० एल० वैद्य-लिखित जाकर पीछेसे जोड़े गये हैं और अधिकांश महामात्य भूमिका पृ० १७