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किरण ८]
पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ
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'ऐतिहासिक जैनकायसंग्रह' के पृ० १४० में प्रकाशित मानकीर्तिसूरि विद्यमाने पं० चउहथ शिष्य वीराह्न 'जइतपदवेलि' सं स्पष्ट है।
लिखितं स्ववाचनाय शृंगारदर्पण काव्यग्र० ६०० ।श्री। उपाध्याय पद्मसुन्दरजीके ग्रंथ
भिन्नाक्षरप्रशस्ति___ हमारे अन्वेषणसे उपाध्याय पद्मसुन्दरजीका श्रृंगार- चतुः शृंगस्त्रिपादश्च द्विशीर्षा सप्तहर्षवान । दर्पण" नामक ग्रंथ मिला है, उससे सम्राट अकबरके साथ त्रिधावद्धो महान देवो, वृषभोगैरवीति ॥१॥ अापका घनिष्ट सम्बन्ध भलीभांति प्रमाणित होता है । यह मान्यो वा "भुभुजोलजघराट् तद्वत हुमायूं नृपो। ग्रंथ सम्राट अकबरके लिये ही बनाया गया था। अतः इस ऽत्यर्थ प्रीतमनः सुमान्य ककोदानन्दरायाऽमिधं । का नाम "अकबरशाहिशृङ्गारदर्पण' रखा गया है । साहित्य तद्वत्साहिशिरोमणेर कबरक्ष्मापालचूडामणे । संसारमें अद्यावधि इस ग्रंथका कोई पता नहीं था। सर्वप्रथम मान्यःपंडितपद्मसुन्दर इहाऽभूत पंडितबातजित।।२।। हमें इस ग्रंथकी अपने हस्तलिखित अपूर्ण ग्रंथों में एक चंद्रप्रभः श्रीप्रभुचंद्रकीर्तिसूरीश्वर श्रंद्रकलाब्धिचंद्र । प्रति मिली। फिर पं० दशरथ जी M. A. से ज्ञात हुआ कि ___ चंद्रोज्वलश्लोकभरःसुखवश्चंद्र क तारावधि मातनोतु ।। इसकी एक पूर्ण प्रति बीकानेर-स्टेट-लाइबरीमें भी है । अतः नागपुरीय तपागणराजः श्रीचंद्रकीर्तिसूरीश्वरा । स्टेट-लायब्ररीके समग्रकाव्यग्रंथोंको दो दिन तक टटोलने पर तच्छिष्य हर्षकार्तिसूरिः समलेखय (स्यार्थ)। ४ सबसे अन्नके बंडल में उसकी प्रति प्राप्त हुई। नीचे इन दोनों कल्याणविपुलं भूयात ए विपरीत रते स्वशीकृता । प्रतियोंके परिचयके साथ ग्रन्थका परिचय दिया जा रहा है- दरहासातिमना रमो नानाविधवाधवसंगता स्मिर
अकबरशाहिशृगारदर्पण-स ग्रंथमें चार उल्लास युद्धे विजितोप्य चाप्पलं ॥१॥ हैं, जिनमें क्रमशः ६८, ७६, ८६ और १८ पद्य हैं, आदिवंत प्रातपरिचय:इस प्रकार है:
A बीकानेर स्टेट लायब्ररी-१६ पत्रकी प्रति है। आदि-यद्भासा सकलं विभाति दुर्लक्षाम् श्वगिदशा। प्रत्येक पृष्ठमें पंक्किये १२ से १४ और प्रति पंक्ति अक्षर ४५
यस्मिन्नोतमिदं हितं तुमणिवश्यत्यं सदाशाश्वत। से ४६ तक हैं। प्रति सं १६२६ अर्थात् रचनाकालके करीब
यत्परि तमसः स्थितं च रहयानित्याद्वयं तत्परम। की लिखी हुई है। ज्योतिःसाहिशिरोमणे अकबर त्वाम् सर्वा देवावतात Bहमारे संग्रहमें-पत्र २ से १३ तककी अपूर्ण प्रति x x x x
है। प्रथम सर्गकी २२ वीं गाथासे प्रारंभ होकर चोथे सर्गकी अंत्यः-अनेन पदचातुरी नियतनायिकालक्षणा। २० गाथा तक सम्बन्ध है। प्रति १६ वीं शताब्दीके पूर्वाद्ध
स्फुरन्नवरसाल्लास व (वि!) णिमप्रबंधेन त। की लिखित प्रतीत होती है। अनंगरससंगप्रथितमानमुद्रावतीं।
२सुन्दरप्रकाश शब्दार्णव-इस ग्रन्थमें ५ तरंग हैं. प्रसादयतु भामिनीमकबरे स्वरोहनिशा ॥९॥ जिनके समग्र पद्योंकी संख्या २६६८ (ग्रंथाग्रंथ ३९७८) है । यद्यस्ति काव्यरचनासु रुचिर्विदग्धा
यह एक कोष ग्रंथ है। नानारसेषु रसिकत्व-कुतूहलं च। . .. आदि-यच्चांतर्वहिरात्मशक्तिविलसच्चिद्रूपमुद्रांकितं । तत्पद्मसुन्दरकविग्रथितं सुरम्यं,
स्यादित्थं ततदित्यणेह विषयाः ज्ञानप्रकाशोदितं शृंगाग्दपणमुपाद्धमदुष्टचिन्ता ।। ९८ ॥
शब्दभ्रान्तितमः प्रकांडवदनबध्नेन्दुकोटिभ्रम। इति - सकलकलापारीण रसिकसाम्राज्यधुरीण बंदे निवृतिमार्गदर्शनपरं सारस्वतं तन्मठं ॥१॥ श्रीअकबरसाहिशृंगारदर्पणे चतुर्थउल्लासो। यादशं xxxx इत्यादि । ले० सं० १६२६ वर्षे प्राषाढमासे कृष्णपक्षे अंत्यः-आनंदोदयपर्वतैकतरेण रानंदमेरोगुगै। अष्टम्यां तिथौ भौमवासरे पातिसाह श्रीअकबरराज्ये । शिष्य पंडितमौलिमंडनमणिः श्रीपद्ममेरुर्गुरुः। आगरामध्ये । भ० श्रीचंद्रकीर्तिसूरिपट्टे भ० श्री श्रीश्री
[शेषांश पृष्ठ ४७६ पर पढ़िये ]