________________
उपाध्याय पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ
(ले०-श्रीअगरचन्द नाहटा )
1. नेकान्तकी गत २-४-५ किरणों में "राजमल्लका पुरीय तयागच्छकी बड़ी प्रसिद्धि हुई। उपाध्यायजी वाद
पिंगल और राजाभारमल्ल"* शीर्षक सम्पादकीय लेख करने में बड़े कुशल थे। इन्होंने 'प्रमाणसुन्दर' नामक न्यायप्रकाशित हुआ है। उसमें (किरण २ पृ० १३७) मोहनलाल ग्रंथ, रायमल्लाभ्युदय महाकाव्य, पार्श्वनाथ काव्य एवं दलीचंद देशाइ लिखित 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' प्राकृतमें जम्बूस्वामी कथा इत्यादि ग्रंथोंकी रचना की है। के आधार पर पद्मसुन्दर-रचित 'रायमल्लाभ्युदय' का उल्लेख "सूरीश्वर और सम्राट"* में लिखा है कि श्री हीरकिया गया है । देशाइजीने पद्मसुन्दरको दि० भट्टारक बत- विजयसूरिजी सम्राट अकबरसे मिले थे, तब वार्तालापके अन्तर लाया है, पर वास्तवमें यह सर्वथा गलत है। । ये पद्मसुन्दर सम्राट अकबरने अपने पुत्र शेखजीके द्वारा अपने नागपुरी तपागच्छके विद्वान थे और सम्राट अकबरसे अापका यहांके पुस्तकालयका ग्रंथ-संग्रह मँगवाकर सूरिजीके समक्ष काफी सम्बन्ध रहा है। हमें इनके कतिपय नवीन ग्रंथ भी रखा ।तब सूरिजीने सम्राट से पूछा कि श्रापके यहां इतने जैन मिले हैं, अतः इस लेखमें उनका यथाज्ञात परिचय दिया एवं जैनेतर ग्रंथोंका संग्रह कहांसे आया ? सम्राट ने उत्तर जा रहा है।
दिया कि हमारे यहां उपाध्याय पद्मसुन्दर नामके नागपुरीय ___ नागपुरीय तपागच्छकी पट्टावलि में आपका परिचय इस तपागच्छके विद्वान साधु रहते थे। वे ज्योतिष, वैद्यक और प्रकार दिया है:-"धुरंधर पंडित पद्मसुन्दर उपाध्यायका सिद्धान्तशास्त्रमें बहुत निपुण थे, उनके स्वर्गवास होजाने सम्राट अकबरसे घनिष्ट सम्बन्ध एवं परिचय था । सम्राट पर मैंने उनकी पुस्तकोंको सुरक्षित रखा है। अब आप कृपया
आपकी विद्वत्ताको अच्छी तरह जानता था। एक बार एक इन ग्रंथोंको स्वीकार करें। ब्राह्मणने दिल्लीमें सम्राट अकबर के समक्ष गर्वित होकर कहा हर्षकीर्तिसूरि-रचित धातुपाठवृत्ति-धातुतरंगिणीकी कि मेरे समान इस कलिकाल में कोई विद्वान नहीं है। यह प्रशस्तिसे पहावली उल्लिखित शाहि सभामें वाद-विजयके सुनकर सम्राटने उपाध्याय पद्मसुन्दरजीको शीघ्र बुलवाया। अतिरिक्त जोधपुरके नरेश मालदेवके श्राप मान्य थे आदि उपाध्यायजीने शीघ्र ही पाकर सम्राट के समक्ष तर्कमें उस प्रतीत होता है। यथाःब्राह्मणको परास्त कर दिया। इससे सम्राट अकबर उनके साहेः संसदि पद्मसुन्दरगणिर्जित्वा महापंडितं । मंत्री और सभासदवर्ग सभी बहुत प्रसन्न हुए। पद्मसुन्दरजी क्षौम-ग्राम-सुखासनाधकबर श्रीसाहितोलब्धवान् ।। को सम्राट ने पहिरामणी कर सुखासनादि प्रदान किये और हिन्दकाधिपमालदेवनपतेमोन्या-वदान्योधिक। प्रागरेमें धर्मस्थान बनवा दिया। उनकी इस विजयसे नाग- श्रीमद्योधपुरे सुरेप्सितवचाः पद्माह्वयं पाठकं ॥१० *विशेषके लिये देखें भारमल्ल-पुत्रकारित वैराटमंदिर-शिला
(हमारे संग्रहकी प्रति) लेख सानुवाद, प्र० जैन सत्यप्रकाश वर्ष ४ अंक ३ से ६;
सं० १६२५ मि. व. १२ को तयागच्छीय बुद्धिसागर एवं प्राचीन जैनलेखसंग्रह लेखाङ्क ३७६ । भारमल्लकी कीर्तिके
जीसे खरतर साधुकीर्तिजीकी सम्राट की सभा पौषधकी चर्चा
जा कह कवित्त 'श्रीमालीवाणिश्रोनोज्ञातिभेद' में छपे हैं।
हुई थी और साधुकीर्तिजीने विजय प्राप्त की थी। उस समय +देशाइजीने उनकी जो गुरुपरम्परा रायमल्लाभ्युदयमें बतलाई पमत
पद्मसुन्दरजी आगरेमें ही थे, ऐसा हमारे द्वारा सम्पादित है ठीक वही 'सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव' श्रादिमें भी है, अत: *गुजराती संस्करण पृ० १२० दोनों एक ही नागौरी तपागच्छके है।
+ हीरविजयसूरि सम्राट अकबरसे सं० १६३६ में मिले थे। अत: जैनयुवकमंडल, अहमदाबादसे प्रकाशित (गुजराती) पद्मसुन्दरजीका स्वर्गवास इससे पूर्व होना निश्चित होता है ।