Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 28
________________ ४५० अनेकान्त - [वर्ष४ 'क्या करना चारिए ?' देर तक शकुन-अपशकुन और पुत्रीका नाम था-मंगीकुमारी ! मंगी-राजपुत्री आदि आवश्यकीय मसलों पर विचार होता रहा। थी, दर्प तेज ओन और अधिकार-बल सब-कुछ उस फिर जो बात निर्णयको पा सकी वह यह कि-छह मिला था ! अगर कुछ नहीं मिला था, तो राजपुत्रको जने धनकी प्राप्तिके लिए नगर-प्रवेश करें और एक 'स्वामी' कहने का सौभाग्य । उसकी शादी साम्राज्य के यहीं-जंगलमें ही-लौटने तक प्रतीक्षा करे ! परदेशः एक महाग्थीके साथ हुई थी । नाम था उसका का मामला, क्या जाने, क्यासे क्या हो ? हम सब 'वजमुष्टि। यहीं विपत्तिके महमें फँस जाँय, और घर तक खबर वजमुष्टि-योद्धा था, वीर था, महान् था, लेकिन भी न पहुँचे ! वे निरीह सात प्राणी अनाथ होकर, 'राजकुमार' नहीं था। किसी गज्यका उत्तराधिकार दाने दानेको तरसें; ऐसा मौका ही क्यों दिया जाए ? उसके लिए स्वाली नहीं था । शारीरिक सौन्दर्यमें और तब बड़ोंने आज्ञा दी-सूरसेनको, कि- अगर वह राजपुत्र था, तो आर्थिक दृष्टिकोण उसका 'तुम यहीं रहो !' छोटेका खयाल कर, या उसको प्रबल शत्रु ! अपने कामके अधिक उपयुक्त या अनुभवी न समझ मंगी के शरीर में था-राज-रक्त ! और वफामुष्टि कर, पता नहीं ! यों, वह भी यथासाध्य इस भया- की माँ के बदन में गुलामी का खून ! एक ओर च्छादित-धन्धेमें सहयोग देता रहा है ! पर, उतनेसे उत्थान था, दूसरी ओर पतन, एक ओर तेज था, उसके अग्रज सन्तुष्ट हुए या नहीं, यह अबतक वह दूसरी और करुणा, दीनता । नहीं जान पाया है ! कोई अवसर भी यह सोचनेका बहू और सासुमें मेल खाता तो कैसे ? यह सही नहीं मिला है-उसे! है कि सासु का दर्जा वैसा ही है, जैसा कि बेटे की ___ सुभानुके नेतृत्व में वह पाँच व्यक्तियोंका जत्था तुलनामें पिताका, या शिष्यके मुक़ाबिलेमें गुरुका । दबे पाँव, बन्द मुँह और जागती या सतर्क-दृष्टिको लेकिन-कब ? तभी न, जब बेटा या शिष्य उसे लिए-नगरकी ओर बढ़ा ! दूसरेके धनको 'अपना' महसूस करे! और महसूस कोई करता है तब, जब बना लेने के लिए ! व्यसनकी 'भूख' को 'तृप्ति' का उसे 'बड़ा' माननेमें उसे लज्जा नहीं, सुख मिले या स्वाद चखानेके लिए या उस महापापी स्याहीमें मिले-गौरवमय आनन्द। डूबनेके लिए, जो अक्सर अन्धेरी रातमें आत्माकी पर, मंगी एक क्षणको भी यह आनन्द उपभोग उज्ज्वलताको हनन कर देती है। न कर सकी ! किसी तरह भी वह यह न सोच सकी सूरसेन उसी निर्जन, भयावने जंगल में बैठ रहता कि सिर्फ 'वह' बन जाने-भरसे बह छोटी बन गई है-सहोदरोंके आदेशमें बद्ध । राज-पुत्री जो ठहरी। सजग, किन्तु मौन !!! ___ सासूके साथ उसका व्यवहार वैसा ही रहा, जैसा कि किसी भी बूढ़े-नौकर, बूढ़ी दासीके साथ सम्भव हो सकता है ! उज्जैनके महाराज-वृषभध्वज, रानी-कमला! था तो वज्रमुष्टिके साथ भी कुछ कड़ा बर्ताव ! x

Loading...

Page Navigation
1 ... 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56