Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 30
________________ ४५२ अनेकान्त [ वर्ष ४ 'लोग उसे श्मशानमें लेगए-वहीं गाड़ कर स्थ विराजे हुए हैं। अभी-अभी तो लौटे हैं । अचानक यह वजपात हुआ वजमुष्टिके कम्पित-शरीरमें बल-संचार हुश्राहै-बेटा। अशरण-शरण जो सहायतार्थ दृष्टिगत हो चुके थे। पर, वजमुष्टि हो रहा था मंगीके प्रेममें पागल । साधु-चमत्कारकी अचक गाथाएँ मनमें जागरित हो दौड़ा उधर ही, जिधर मंगी थी, श्मशान था- उठी। और आशाने दिया उन्हें प्रोत्साहन । भक्ति बेतहाशा पागलकी तरह। और श्रद्धास भीगा हुआ वजमुष्टि उठा । मंगीको यत्नपूर्वक गोदमें ले, चला योगीश्वरकी चरण-धूलिमें लिटानके लिए। अपनेको छिपाए, अपराधीकी तरह चुप- महानीदमें परिणत हो जानेके लिए लालायित सरसनने देखा-देखा मंगीको दफनाते हुए भी और मंगीका मूर्छित-शरीर वजमुष्टिने गुरु चरणकी शरण और वजमुष्टि द्वाग उसके संज्ञा-शून्य-शरीरको बाहर में डाल दिया । और कहने लगा, दीन और दुखे हुए निकालते हुए भी । उसका हृदय रो रहा था, मुंह पर स्वरमें-भगवन् ! तुम्हारी ही शरण है। मेरी प्राणहवाइयाँ उड़ रही रहीं थीं, हाथ काँप रहे थे। प्रियाको जीवन दान देकर मुझे सुखी बनाया । मेरी कह रहा था, दिलको हिला देने वाली आवाज व्यथा हरण करो । मैं सहस्र-दल-कमल समर्पण में- मैं तेरे बिना जिन्दा न रह सकूँगा-मगी! कर, अपनी भक्ति, श्रद्धा और खुशी प्रकट करनेका मुझे छोड़ कर कहाँ जा रही है ? मैं तुझे अकेला न अवसर पाकर अपनेको धन्य समझंगा । प्रभा ! जाने दूंगा, न जाने दूंगा, हरगिज न जान दूंगा।' प्रार्थनाको व्यर्थ न जाने दो। नहीं, मैं मंगीके बिना सूरसेनका हृदय काँप उठा।-कितना अगाध जीवित न रह सकूँगा। वह मेरी गुणवती, स्नेहशीला, प्रेम है उसे खीस ?...काश ! स्त्री अगर जीवित हो प्राणोपम प्राणेश्वरी है।' सकती ? देख सकती उसके वियोगमें पतिकी केसी सूरसेन एक टक देखता-भर रहा-चुप। उसके दयनीय-दशा हो रही है। कितनी अटूट-मुहब्बत है वियोगने मन जानें कैसा कर दिया है। उस, जो खुद मरने तकको तैयार हो बैठा है।' ___x. xxx पर, मंगी अडोल। मंगीने करवट ली, थोड़ी कराही और फिर उठ मौन ॥ बैठी । जैसे उसे कुछ हुआ ही न था, सोकर उठी हो। मृतप्राय ॥ तपोनिधिकी विषापहरण-ऋद्धिक प्रभावने निर्विष कर वजमुष्टि देर तक रोता रहा, अपनी जाँघ पर उठ-खड़े होनेका मौका दिया। और दी, वजमुष्टिको मंगीका सिर रक्खे हुए-करीब-करीब निरुपाय। मुंह-मांगी मुराद ! सीमान्त-खुशी ! और आनन्द' अचानक उसकी नजर जो सामने गई तो भीरू- विभोर कर देने वाली-प्रणय-भिक्षा !!! मनमें कुछ-कुछ आशा संचरित हुई। दोनों एकमेक । प्रेमालिंगन । तपोधन, ऋद्धिधारी, परम-दिगम्बर-साधु, ध्यान- जैसे जीवन और मृत्युका संगम हो ।

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