Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ किरण ८] तपोभूमि लेकिन ऐसा नहीं, कि ज्यादह कडुवा बन सकता ! उस घड़े फूल और गजरे रक्खे हैं-लेकर पूजासे क्यों कि वह पुरुष था ! पुरुष, सदासे ही नारीका ही निवृत्ति हो लूँ तब तक ।' 'प्रभु' रहा है ! और वह रही है हमेशा-गुलाम ! मिठास और दीनता ! यही दो-बातें तो मंगी उसकी मिहरबानीकी मुहताज ! साथ ही, पुरुषका चाहा करती थी। और सासु इन दोनोंस हमेशा जुदा मन सदास नारीके लिए नरम रहा है ! वह उसकी रह कर, स्वामित्व दिखानेकी आदी थी। आज जो डाट इपट कड़ी-नज़र और चुभती बातोंको भी सुन- यह परिवर्तन देखा तो मंगी-कामके लिए. 'न' न कर हँसते-हँसते पचा जानका आदी रहा है ! नारीके कर सकी। आकर्षणने बाँध जो रक्खा है-उस, और उसकी गजरा निकालनेके लिए-खुशी-खुशी हाथ घड़े सारी उग्र शक्तियोंको ! तिसपर वजमुष्टिको तो मंगीसे में डाल दिया।.. था प्रेम ! उसीके शब्दोंमें-ऐसा कि 'बिना उसके मिनिट बीता होगा, कि मंगी पछाड़ खाकर जमीन चैन नहीं !' अलावः प्रेमके, गौरव भी कम नहीं था पर गिरी । और निकलने लगा मुँहस, बेतहाशा उसे इसे इस बातका, कि उसकी स्त्री महागज वृषभ भाग। ध्वजकी प्यारी पुत्री और एक उच्च-घरानेकी राज- सासुने देखा- 'उसे कुछ न समझने वाली उद्दण्ड कुमारी है ! वह उसकी प्रसन्नताको अपना अहोभाग्य छोकरी, बेहोश पड़ी है !' समझता ! उसी तरह-जिस तरह एक दरिद्र मल्य- खुशीसे उसकी आँखें चमक उठीं! वान् वस्तुको पा लेने पर उसे अपनेसे अधिक लपक कर उसने घड़ेका मुंह बन्द कर दिया। हिफाजत और सँभाल के साथ रखता है। गुस्समें जला भुना साँप जो घड़ेमें कैद था। x x ___ पर, सासूके सामने ऐसी कोई बात नहीं थी ! वजमुष्टि था-बाहर ! महागजके साथ गया वह बहू की उद्दण्डता पर नाखुश थी। और असन्तुष्ट हुआ था-कहीं ! थी इस पर कि वह उस कुछ समझती नहीं । जब कि देवयोग !!! उसका फर्ज उसको पूजनेका, आदर करनेका है ! उसी रात वह लौट आया ! स्त्रीको न देख, उसने भीतर ही भीतर उसके दिन-रात लंका-दहन होता पूछा-'माँ ! कहाँ है-वह ?' रहता। __माँ अबतक रोनी-सूरत बनाए बैठी थी ! सुनी मनमें कसक, पीड़ा लिए, वह इस कष्टसे मुक्ति जो पुत्रकी बात तो गले पर काबू न रख सकी । . पानेके उपायमें लगी रहती ! पर, करे क्या..? एक बार खुल कर रोनेके बाद हिचकी लेते हुए ___ x x x x कहने लगी-'उसे साँपने काट लिया था ! उस दिन उपाय' सासूके सामने आगया, सफलता 'साँपने ?' .. या कामयाबीका जामा पहिनकर ! बड़ी खुश हुई हाँ ! आज हीकी तो बात है, सैकड़ों दवाएँ की, वह ! मिठास और दीनता-भरे स्वरमें बोली-'ला तो! फिर किया क्या...."

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