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अनेकान्त
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प्रश्न से ऐसा मालूम होता है कि आपने यह सयुक्तिक सम्मतिका उत्तरलेख प्रायः आँख मीचकर लिखा है; क्योंकि 'सूत्रभाष्ये' पदमें जब भाष्य शब्द स्पष्ट दिखाई देरहा है तब उक्त प्रश्नको लिये हुए आपकी उक्त लिखावटको आँख मीचकर लिखी जाने के सिवाय और क्या समझा जा सकता है ।
सिद्धसेनगरणीने की नहीं, ऐसी हालत में अर्थात संदिग्ध अवस्था में ' उमास्वातिवाचकोपज्ञ विशेषण भाष्य के लिये लागू नहीं हो सकता, और इसलिये मैंने — उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये ' इस वाक्यको जो प्रथमाका द्विवचन लिखा है वह सर्वथा व्याकरण के कायदेको लिये हुए है । इसको जो 'व्याकरणशून्यता' लिखते हैं वे स्वतः व्याकरणज्ञानसे शून्य जान पड़ते हैं । मैंन सप्तम अध्यायके उस सन्धिवाक्यका अर्थ देते हुए, जिसमें विवादस्थ पदका प्रयोग हुआ है, एक जगह ‘ उसमें ( उनमें ) ' अर्थ लिखा था, इस पर प्रा० सा० पूछते हैं कि - " उसमें यह अर्थ कहाँ से आगया ?” इसका समाधान इतना ही है कि यदि कोई संस्कृतका अच्छा जानकार होता तो वैसा अर्थ स्वयमेव कर लेता । परन्तु आपकी समझमें वह अर्थ नहीं आया और मुझे मुख्यतया आपकों ही समझाना है अतः आप समझिये - संस्कृत या और भी भाषाओं में जो वाक्य होते हैं वे सब साक्षेप होते हैं । यहाँ प्रकृत में जो यह वाक्य है कि ' और भाष्य सूत्र हैं' इसमें सूत्र और भाष्य कर्ता हैं, कर्ता हमेशा क्रियाकी अपेक्षा रखता है अतः 'है' यह क्रिया अग त्या अध्याहृत है । जब प्रकृतमें ' सूत्र और भाष्य हैं' ऐसा वाक्य सिद्ध होजाता है तो फिर उसके आगे ' भाष्यानुसारिणी टीका है ' यह वाक्य विन्यस्त है; तब स्वतः ही दोनों वाक्योंका संबंध मिलानेवाला अर्थात् सापेक्ष वाक्य जो ' उसमें ' ( उनमें ) है वह सम्बंधित होजाता है । अतः यहां भाषापरिज्ञानी को यह शंका नहीं होती कि 'उसमें' या 'उनमें' यह अर्थ कहाँ से आ गया । और इसलिये उक्त शंका निर्मूल है।
इसी प्रकार आगे चलकर आप पूछते हैं कि 66 उक्त अर्थ में 'भाग्य' शब्द कहाँ से कूद पड़ा ?" इस
इसी प्रकृत विषय के संबंध में आपने एक विचित्र बात और भी लिख मारी है, और वह यह है कि "उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' पदमें 'उमास्वातिवाचकांपज्ञ' जो उद्देश्य है वह अपने विधेय 'भाष्य' पदके साथ तो अवश्य ही जायगा, चाहे थोड़ी देर के लिये वह 'सूत्र' के साथ न भी जाय" यह आपका वचन वास्तव में सहास्य व्याकरणशून्यताका सूत्रक है । अपने इस कथन के समर्थनमें आपने कोई भी हेतु नहीं दिया, निर्हेतुक होने से आपका कथन प्रमाण कोटि में नहीं आ सकता । श्राश्चर्य है आपके साहस को जो आपने भटसे ऐसा लिख मारा कि जिस विशेष्य से विशेषण संबद्ध है उसके साथ तो वह न
भी जाय और दूरवर्ती विशेष्य के साथ उछलकर संबद्ध होजाय ! यह सब आपकी विचित्र कथनी आप सर.खों के ध्यान - शरीफ में भले ही आए परंतु विज्ञोंके ध्यानसे तो वह सर्वथा बाह्य ही है और उसे कोई महत्व नहीं दिया सा सकता ।
इसी प्रकरण में आपने यह भी लिखा है कि 'अर्हत्प्रवचन' शब्द भी नपुंसकलिंग है, फिर उसे भी प्रथमाका द्विवचन क्यों न माना जाय ?” इसका समाधान एक तो यह है कि - 'तत्वार्थाधिगमे' पदके अनंतर कदाचित् वह पद ( अर्हत्प्रवचने) होता तो मान भी लिया जाता, परंतु यहाँ वैसी वाक्यरचना नहीं है । अतः वैसे अर्थका टति अर्थावबोधकत्व न
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