Book Title: Anekant 1941 09
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 22
________________ ४४४ अनेकान्त [ वर्ष ४ विषयकी शंकाका समाधान किसी राजवार्तिक, सर्वार्थ- वार्तिकमें 'वृत्ति' शब्द आजानस प्रा० सा० ने अपनी सिद्धि या श्वताम्बर भाष्य प्रादिक वाक्योंस न करके मान्यताके अनुमार जो यह लिख माग है कि "राजखास उमास्वामी महागजके सूत्रस कर रहे हैं। और वार्तिकमें 'वृत्तौ उक्त' कहकर जो वाक्य उद्धृत किये इसलिये प्रो० सा० का यह लिखना कि " 'वृत्ति' का हैं वे वाक्य न किसी सूघरचनाके हैं और न अनुपअथ 'सूत्ररचना' किसी भी हालत में नहीं हो सकता" लब्ध शिवकोटिकृत वृत्तिके, बल्कि उक्त वाक्य निरर्थक जान पड़ता है। हाँ, वह शंका यदि किसी श्वेताम्बरीय तत्त्व थ भाष्यक हैं" उसमें कुछ भी सार वृत्तिविशेषके विषयकी होती तो अकलंक उस वृत्त नहीं है । उसका निरसन सूत्ररचना-विषयक ऊप के के ही अंशस उसका समाधान करते । यहाँ शंकाका वक्तव्यसे भले प्रकार होजाता है । रही हाल में अनुपविषय मौलिक रचनास सम्बन्ध रखता है अतः उस लब्ध शिवकोटि कृतिकी बात, उसका सम्बन्ध शिला का समाधान मौलिक रचनापरस दिया गया है, जिस लेखस है, उसकी जब उपलब्धि होगी तब जैसा कुछ पर कोई आपत्ति नहीं की जासकती * । अतः राज- उसमें होगा उस समय वैसा निर्णय भी हो जायगा। * यहाँपर मैं इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ फिलहालकी उपलब्धिमें तो सूत्ररचना-विषयक संबंध कि स्वयं अकलंकदेवने राजवार्तिकमें अन्यत्र भी 'वृत्ति' ही अधिक संगत और विद्वद्-ग्राह्य जान पड़ता है। शब्दका प्रयोग 'सूत्ररचना' के अर्थ में किया है; जैसा कि यह नहीं हो सकता कि अकलंक देव शंका तो ठावें 'भवप्रत्ययोऽवधिदेवनारकाणां' इस सूत्रसम्बंधी छठे वातिकके श्वेताम्बर भाष्यके आधार पर और उसका समाधान निम्न भाष्यसे साफ़ प्रकट है, जिसमें 'देव' शब्दको अल्पा - क्षर और अहित होनेसे सूत्ररचनामें पूर्व प्रयोगके योग्य करने बैठे दिगम्बर सूत्रके बल पर ! ऐसी असंगतता बतलाया है, और इसलिये यहाँ प्रयुक्त हुए 'वृत्तौ' पदका और असम्बद्धताकी कल्पना राजवार्तिक-जैसी प्रौढ अर्थ · सूत्ररचनायां ' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो रचनाके विषयमें नहीं की जा सकती। दूसरी बात सकता: "अागमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेश- में 'नारक' शब्दका 'देव' शब्दसे पहले प्रयोग होना वचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता, ततो नारक- चाहिये । ऐसी हालतमें यहाँ 'वृत्ति' का अर्थ 'श्वेताम्बर शब्दस्य पूर्व निपातेन भवितव्यमिति । तन्न किं कारणं भाष्य' किसी सूरत में भी नहीं हो सकता। क्या प्रोफेसर जगउभयलक्षणप्राप्तत्वाद्देवशब्दस्य । देवशब्दो हि अल्पाजभ्य- दीशचंद्रजी, जिन्होंने अपने समक्षा-लेख (अने० वर्ष ३ पृ० हिंतश्चेति वृत्तौ पूर्वप्रयोगार्हः।" ६२६) में ऐसा दावा किया था कि राजवार्तिकमें प्रयुक्त हुए यहाँ पर भी यह सब कथन दिगम्बर सूत्रपाठसे सम्बन्ध भाष्य, वृत्ति, अहत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय इन रखता है-श्वेताम्बर सूत्रपाठ और उसके भाष्यसे नहीं। सब शब्दोंका लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत श्वे. भाष्य है, क्योंकि श्वेताम्बर सूत्रपाठका रूप "तत्र भवप्रत्ययो नारक- यह बतलानेकी कृपा करेंगे कि यहाँ प्रयुक्त हुअा 'वृत्तौ' देवानाम्" है, जिसमें 'नारक' शब्द पहले हीसे 'देव' शब्द पद, जो विवादस्थ 'वृत्तौ' पदके समान है, उसका लक्ष्यभूत के पूर्व पड़ा हुआ है, और इसलिये वहाँ वह शंका ही अथवा वाच्य श्वेताम्बर भाष्य कैसे हो सकता है ? और उत्पन्न नहीं होती जो "श्रागमे हि" आदि वाक्योंके द्वारा यदि नहीं हो सकता तो अपने उक्त दावेको सत्यानुसन्धानके उठाई गई है और जिसमें यह बतलाकर, कि आगममें नाते वापिस लेनेकी हिम्मत करेंगे। साथ ही, जीवस्थानादिके आदेशवचनमें-नारकोंकी ही पहले सत् करेंगे कि अकलंकदेवने स्वयं 'वृत्ति' शब्दको 'सूत्ररचना' आदि रूपसे प्ररूपणा की गई है, कहा गया है कि तब सूत्र के अर्थ में भी प्रयुक्त किया है। -सम्पादक .

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