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किरण ८]
सयु० स० पर लिले गये उत्तर लेखकी निःसारता
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“ शास्तीति च ग्रंथकार एव द्विधा अात्मानं उक्त दोनों स्थलोंकी पंक्तियाँ व्यर्थकी खींचातानीको विभज्य सूत्रकारभाष्यकाराकारेणैवमाह-शास्तीति, लिये हुए निर्हेतुक होनसे यह कैसे समझा जाय कि सूत्रकार इति शेषः । अथवा पर्यायभेदात् पर्यायिणो भाष्यकार और सूत्रकार एक हैं ? मालूम होता है भेद इत्यन्यः सूत्रकारपर्यायाऽन्यश्च भाष्यकारपर्याय सिद्धसनगणीने दोनोंको एक बतलानेका जो यह इत्यतः सूत्रकारपर्यायः शास्तीति ।"
प्रयास किया है वह केवल आम्नायकी रक्षार्थ लोक. अर्थात्-ग्रंथवार ही अपने आत्माको सूत्रकार दिखाऊ किया है; क्योंकि यदि उनकी सर्वथा वैसी ही
और भाष्यकारके आकारस दो भागोंमें विभाजित कर भावना होती तो वे सूत्रकारको 'सूरि' और भाष्यकार के ऐसा कहता है । ' शास्ति' क्रियापदके साथमें ।
को 'भाष्यकार' उल्लेखित करके जुदा जुदा प्रकट न
करते । जैसा कि निम्न वाक्योंसे प्रकट है :'सूत्रकारः' पद ' इति शेषः ' (अध्याहृत्त ) के रूप
" इति कश्चिदाशङ्केत, अतस्तनिवारणायाह में है । अथवा पर्यायके भेदसे पर्यायीका भेद होने के
भाष्यकारः" (पूर्वार्ध पृ० २५) कारण सूत्रकार पर्याय अन्य है और भाष्यकार पर्याय
"सत्यपि प्रमाणनयनिर्देशसदसदाद्यनेकानुयोगअन्य है । अतः 'शास्ति' क्रियाका कर्ता सूत्रपयोय है। द्वारव्याख्याविकल्पे पुनः पुनस्तत्र तत्रैतदेव द्वयमुपन्य
दूसरा स्थल द्वितीय अध्यायके ४५ वें सूत्रकं स्यन् भाष्याभिप्रायमाविष्करोति सूरिः ।" (पू०पृ० २९) भाष्यमें प्रयुक्त हुए 'कार्माणमाह' इस वाक्यस संबंध "तत्रेदं सूत्रं वाक्यान्तरनिरूपणद्वारेण प्राणायि रखता है, जिसकी टीकामें सिद्धसेनगणी लिखते हैं- सूरिणा।” (पू०प० ३२)
"सूरिराह-अत्रोच्यते ।" (पू० पृ० ४१) “सूत्रकारादविभक्तोऽपि हि भाष्यकारी विभाग सिद्धसेनगणीकी टीकामें ऐसे अनेक स्थल हैं जो मादर्शयति, व्युच्छित्तिनयसमाश्रयणात् ।"
खासकर 'सूरि' शब्दसे सूत्रकर्ताके वाचक हैं अर्थात्-भाष्यकार सूत्रकारसे अभिन्न होता तथा सूत्रकार के लिये 'सत्रकार' और भाष्यकारक हुआ भी अपनेको भिन्न प्रकट कर रहा है, यह पयो- लिये 'भाष्यकार' शब्दके स्पष्ट प्रयोगको लिये हुए हैं। यार्थिकनयके आश्रयको लिये हुए कथन है। इससे मालूम होता है कि सिद्धसेनगणीकी उक्त
इन दोनों स्थलोंपर उत्पन्न होनेवाली सन्देहकी मान्यता सन्देहको लिए हुए लोकदिखाऊ थी । ऐसी रेखा और खींचातानी द्वारा उसके परिमार्जनकी चेष्टा हालतमें 'उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये' इस पद स्पष्ट है। इनमेंसे पिछले स्थलके 'सूत्रकारादविभक्तो को सिद्धसनगणीका मान लेनेपर भी यह कैसे निश्चित ऽपि हि भाष्यकारः' इस वाक्यखण्डको उद्धृत करके रूपसे कहा जा सकता है कि उनका अभिप्राय 'उमाउत्तरलेखक (प्रो० सा०) ने अपने कथनकी बड़ी स्वातिवाचकोपज्ञ' विशेषणको भाष्यके साथ लगाने भारी प्रामाणिकता बतलाई है और ऐसा भाव व्यक्त का था ? यदि उनको वह विशेषण भाष्यके साथ भी किया है कि मैं जो कुछ लिख रहा हूं वह अखंड्य है! लगाना अभीष्ट होता तो वे उसे सत्रकी तरह भाष्यक यह देखकर मुझे बड़ा अफसोस होता है कि ऐसे भी साथ लगाकर दो पद अलग अलग दे देते अथवा शब्दमात्रप्रेक्षी लेखक कैसे कैसे निंद्य धोखेमें स्वतः 'उमास्वातिवाचकोपज्ञे' और 'सत्रभाष्ये' ऐसे दो फँसकर दूसरोंको भी फँसाते हैं ! सिद्धसेनगणीकी पद लिख देते । परंतु इन दोनोंमेंसे एक भी बात