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किरण ८]
विश्वसंस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान
बीचका है। ईसवी सनसे एक शताब्दी बाद जैनियोंमें के लिये एक बृहत् सूची बनानेका प्रयत्न भी नहीं किया। दिगम्बर और श्वेताम्बर जो फ़िर्के हो गये, उनको एक करने लगभग सन् १८७६-७८ में हस्तलिखित जैन ग्रन्थोंका एक का गौरवपूर्ण प्रयत्न इस महापुरुषने किया था। बड़ा संकलन बर्लिनकी रायल लायब्ररीके लिये जार्ज बूल्हर
इस महान् साहित्य और इसकी आध्यात्मिक सामग्रीकी ने किया था। और जैनसाहित्यके विस्तृत विवरणका भी यत्नपूर्वक रक्षा करना मात्र दिगम्बरियोंका, श्वेताम्बरियोंका, पहला प्रयत्न सन् १८८३-८५ के पास पास प्रोफ़ेसर ए. स्थानकवासियोंका, तेरा पंथियों या किसी दूसरे सम्प्रदायके वेबरने किया था। सन् १९०६ और १९०८ के बीचमें लोगोंका ही कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह तो भारतीय संस्कृति पेरिसके विद्वान प्रो०ए० गुरीनां महोदयने अपनी 'studies और ज्ञानके सभी प्रेमियोंका कर्तव्य है।
on Jaina Bibliography' प्रकाशित की थी। जैनियोंका सैद्धान्तिक साहित्य प्राजभी केवल कुछ उसमें उसके बाद कोई परिवर्तन नहीं किया गया, जबकि गत विशेषज्ञों और विभिन्न सम्प्रदायोंके लोगों तक ही सीमित है। तीस वर्षों में उत्तर और दक्षिण भारतमें नये हस्तलिखित
और सिद्धान्त-प्रतिपादनके अलावा जो दूसरा विशाल साहि- जैनग्रंथों और शिलालेखोंके ढेरके ढेर मिले हैं। हाल ही में त्य है, उसका भी प्राजतक पूर्ण रीतिसे अध्ययन नहीं किया दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी ओर विद्वानोंका ध्यान आकर्षित गया है। हिन्दू-तत्त्वज्ञानके कितने विद्यार्थी यह जाननेकी हो रहा है । डा०, एम० एच० कृष्णने 'श्रवण बेल गोलामें परवाह भी करते हैं कि जैनियोंने न्याय और वैशेषिक दर्शनों गोमटेश्वरके मस्तकाभिषेक' पर खोजपूर्ण विवेचन किया है। के विकासमें कितना योग दिया है ? कितने हिन्दु इस बात डा०, बी० ए० सालतोर और श्री एम० एस० रामस्वामी को जानते हैं कि रामायण और महाभारतकी कथाओं, एवं आयंगरने भी दक्षिण भारतीत जैनधर्मके अध्ययनमें महत्वपुराण और कृष्णकी कहानियों पर जैन लेखकोंने भी कितना पूर्ण योगदान किया है । (देखो जैन एंटीक्वेरी, मार्च १९४०)। लिखा है। भारतीय कलाके कितने विद्यार्थी यह जानते हैं इण्डियन म्युजियमके क्यूरेटर श्री टी० एन० रामचन्द्र ने कि प्राचीन अजन्ता-कालकी चित्रकला और मध्य-युगकी अपनी सुन्दर सचित्र पुस्तक, जिसका नाम "तिरुप्परुत्ती राजपूत-कलाके बीच जैन चित्रकला कितना सुन्दर यौगिक कुरनन, और उसके मन्दिर" में दक्षिण भारणके जैनस्मारकों है । जैन लेखकोंने भारतकी कई प्रमुख भाषाओं जैसे उत्तरमें के बारेमें बहुत सुन्दर सामग्री दी है। डा० सी० मीनाक्षीने गुजराती, मारवादी और हिन्दी, तथा दक्षिणमें तामिल, कई जैन गुफाओं और जैनचित्रोंका पता लगाया है, जिनमें तेलगु और कनाड़ी आदिको साहित्य सम्पन्न करने में कितनी तीर्थंकरोंके जीवनकी सामग्री है। खासतौरसे पुदुक्कोटा स्टेट सहायता दी है। इन भाषाओं में आज भी जैनधर्म सम्बन्धी अन्तर्गत सित्तन्न-घासल ग्राममें यह खोज हुई है। कितने गम्भीर और विवेचनपूर्ण प्रबन्ध छपते हैं, किन्तु अभी तक किसी भी जैनसंस्थाने इस समस्त सामग्रीकी सर्वसाधारण
[पर्युषन-पर्व-व्याख्यानमाला]