Book Title: Anekant 1940 04 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 6
________________ ३८२ अनेकान्त [ चैत्र, वीर - निर्वाण सं० २४६६ 1 प्रकरण ग्रन्थ हैं । जिसे प्राचीन षष्ठ कर्मग्रन्थ भी कहते हैं। इसकी कुल गाथा संख्या ७५ है । इस प्रक रण के संकलन कर्ता श्राचार्य चन्द्रर्षि माने जाते कहा जाता है कि आपने स्वयं इस पर २३०० श्लोक प्रमाण एक टीका भी लिखी है । परन्तु वह अभी तक मेरे देखने में नहीं आई । श्राचार्य चन्द्रर्षि कर्मसाहित्यके अच्छे विद्वान थे । 'पंचसंग्रह ' नामकी आपकी कृतिका श्वेताम्बर सम्प्रदाय में विशेष आदर है । यह पचसंग्रह उक्त दिगम्बर पंचसंग्रह से भिन्न है । इस पंचसंग्रहमें शतक, सप्ततिका, कत्रायप्राभृत, सत्कर्म, और कर्मप्रकृतिलक्षण नामक ग्रंथोंका; अथवा योग, उपयोगमार्गणा, बन्धक, बंधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधिरूप प्रकरणों का संग्रह कियागया है । जिससे इसका पंचसंग्रह नाम अधिक सार्थक जान पड़ता है। इस ग्रन्थकी कुल गाथा संख्या ६६१ है । इसपर ग्रंथकर्ताने खुद ६००० श्लोक प्रमाण एक टीका लिखी है जो मूलग्रंथके साथ मुद्रित हो चुकी है । यद्यपि इस ग्रंथ में शिवशर्म की प्रकृतिका विशेष अनुकरण है परन्तु वह सब अपने ही शब्दों में लिखा गया है। कहीं कहीं पर कुछ कथनं दिगम्बर ग्रंथोंसे भी लिया गया मालूम होता है, परन्तु वह बहुत ही अल्पे जान पड़ता है। आचार्य चन्द्रर्षिने पंचसंग्रह में यदि मंगल करके ग्रंथके, कथन करने की प्रतिज्ञाकी है और अन्त की निम्न गाथा में - कर्मस्तव में ६, १० नं० पर पाई जाती हैं। इस तरह से उक्त कर्मस्तव ग्रन्थ में ५५ गाथात्रोंका जो संकलन हुश्रा है वह सब इसी पचसंग्रह परसे हुआ जान पड़ता है । पाठकों की जानकारीके लिये तुलनाके तौर पर यहां दो गाथाएं दी जाती हैं:मिच्छ्णउंसयवेयं णिरयाऊ तहय चेव गिरयदुनं । इग वियलिंदियजाई हुँडमसंपन मायावं ॥ थावर सुहुमंच तहा साहारणयं तदेव श्रपज्जत्तं । ए ए सोलह पयडी मिच्छम्मि अ बंध- बुच्छेभो ॥ - प्रा० पंचसं० ३, १५, १६ मिच्छनपुंगवेयं नरयाउं तहयचेव नरयदुगं । वियलिंदिय जाई हुँडमसंपत्तमायावं ॥ थावरसुहुमं च तहा साहारणयं तदेव अपज्जतं । या सोलह पयडी मिच्छमि य बंधबोच्छेो ॥ — कर्मस्तव, ११, १२ इसी तरहसे प्राकृत पंचसंग्रहकी गाथाएं नं० १, ११, १२, २६, ५०, ५१, ५२, ५३, २, ४, १७, १८, ·. १६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५५, ५६, ५७, ५८, ५६, ६०, ६१, ६२, ६३, ६४, ६५, ६६, कर्मस्तव में क्रमशः नं० १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, १०, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १६, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ३२, ३३, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३६, ४०, ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ४६, ४७, ४८, ४६, ५०, ५१, ५२, ५३, ५४, ५५, पर ज्योंकी त्यों रूपसे उपलब्ध होती हैं । सप्ततिका और पंचसंग्रह श्वेताम्बरीय कर्म ग्रंथोंमें 'सुप्ततिका' नामका भी एक * पंचानां शक्षक सप्ततिका - कषायप्राभृतपंचाना सत्कर्म-कर्म प्रकृतिलक्षणांनां ग्रन्थानां, अथवा मर्थानामर्थाधिकाराणां योगोपविषय मागंणा-बंधक : बंधव्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणानां संग्रहः पंचसंग्रहः । -पंच व मलयगिरी गा० १ + नमिऊण जिणं वीरं सम्मं दुट्टटुकम्म निव बोच्छामि पंचसंगहमेय महत्वं जहत्थंच ॥ १ ॥ —पंचसंग्रहे, चन्द्रर्षिः 1 biPage Navigation
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