Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 41
________________ वर्ष ३, किरण ६] वीरका जीवन-मार्ग ऋद्धि सिद्धि प्राप्त करनेके लिये अनेक यौगिक कर्म मालूम किये । परन्तु मूल प्रश्नका हल न हुआ । इन्हें विफल जान विज्ञान मार्गको अपनाया, अनेक विद्याओं और आविष्कारोंको उत्थान मिला । प्रकृतिकी शक्तियों को निर्घातक बनाने और काम में लाने के लिये अनेक ढंग मालूम किये। नगर और ग्राम बसाये, दुर्ग और प्रासाद खड़े किये, खाई और परकोट रचे, अनेक औषधि, रसायन और उपचार प्रयोग में लाये; परन्तु रोग-शोक, जन्म-मरणका वहिष्कार न हुआ, श्रानन्दका लाभ न हुआ, सुन्दरताका आलोक न हुआ । इस कमीको पूरा करनेके लिये शिल्पकलाकी ओर ध्यान दिया, बस्तियोंको उद्यान- बाटिका, ताल बावड़ी चौक- राजपथ से सजाया, भवनों को खम्भ, तोरण, शिखर, उत्तालिकाओंसे ऊँचा किया । इन्हें फूल फुलवाड़ी, मूर्ति चित्रकारीसे सुशोभित किया । शरीरको वस्त्राभूषण, तेल फुलेल, रूपशृगारसे अलंकृत किया । इस मार मार, घसाघसमें नृत्य संगीत, नाटक-वादित्र भरकर जीवनको सरस बनाया, परन्तु जीवनकी कुरूपता, भयानकता, जड़ताका अन्त न हुत्रा । तब मनुष्यने व्यक्तिगत परिश्रमको निर्बल जान पुरुषार्थको संगठित करनेका विचार किया, अनेक संस्थायें व्यवस्थायें स्थापित हुई, अनेक संघ और समाज बने, अनेक सभ्यता और साम्राज्य उदयमें आये । कभी जाति को कभी संस्कृतिको, कभी देशको इनका आधार बनाया | परन्तु यह संगठित शक्ति भी प्रकृतिके अनिवार्य उत्पातोंका, शरीर के स्वाभाविक रोगोंका, मनकी व्यथा व्याधियोंका जन्म-मरण रूप संसारका अन्त न कर सकी । आखिर मनुष्य की दृष्टि नीति मार्ग की ओर गई । ४१७ सहयोग-सहमन्त्रणाको धर्मं बनाया । संयम-सहिष्णुता, दान- सेवा, प्रेम वात्सल्य का पाठ पढ़ा, परन्तु सुख शांति ' का राज्य स्थापित न हुआ, पाप अत्याचारका अन्त न हुश्रा, मारपीट, लूट खसोट, दलन मलनका प्रभाव न हुआ। दीन-हीन, दु:खी- दरिद्री, दलित- पतित बने हैं। रहे । ऊँच नीच, छोटे बड़ेके भाव जमे ही रहे । तब विचार उत्पन्न हुआ कि यह नीतिका मार्ग नहीं, यह नीतिका अभाव है । इसमें सत्याग्रह, साम्यता और हिंसाका अभाव है। इसका उद्देश परमार्थसिद्धि नहीं, स्वार्थ सिद्धि है । इसका रचयिता सदुज्ञान नहीं, बुद्धिचातुर्य है । इसका आधार अन्तः उद्धार नहीं, बाह्य उपयोगिता है (Utalitarianism)। इस की उत्पत्ति पूर्णतामें से नहीं हुई, यह वांछाकी सृष्टि है । इसलिये यह अपने ही संघ, जाति, सम्प्रदाय और देश में सीमित होकर रह जाती है । इससे बाहिर समस्त लोक अनीतिका क्षेत्र है । यह नीति मानव गौरवकी वस्तु नहीं, यह तो चोर डाकुओं के संघ में भी मौजूद है, क्रूर पशु पक्षियों के समूह में भी मिलती है । इस प्रकार जीवने बुद्धि द्वारा जीवन तथ्यको समकी नेकविध कोशिश की; इसके साधनोंको अनेक विध प्रयोग में लाया, इसके बतलाये हुये तथ्योंकों अनेक विध स्वीकार किया, इसके बताये हुये जगको अनेक विध टटोला, इसके सुझाये हुये मार्गों को अनेक विश्व ग्रहण किया; परन्तु वाँछाकी तृप्ति न हुई । वेदना बनी रही, पुकारती ही रही । तब कहीं निश्चित हुआ कि बुद्धि निरर्थक हैं । इसकी धारणा मिथ्या है। इसका मार्ग निष्फल है । इसका जग वांच्छित जग नहीं । यह और हैं और वह कोई और है। इसजगकी सिद्धि में सुख नहीं, इसकी श्रसिद्धि में दुःख नहीं, सुख और दुःख इस जगसे निर्पेक्ष

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