Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 45
________________ वर्ष ३, किरण ६] .. वीरका जीवन-मार्ग ... जब जीवमें अलौकिक जीवनकी भावना अंकित मोही अात्मा इनके लाभसे अपना लाभ, इनकी वृद्धिमें हो जाती है, चित्रित हो जाती है, साक्षात् भाव बन अपनी वृद्धि इनके हाथमें अपना हाथ, इनके नाशमें जाती है तब आत्मा श्रात्मा नहीं रहता, यह परमात्मा अपना नाश धारण करने लग गया है। .. .. .... हो जाता है, यह ब्रह्म नहीं रहता, परब्रह्म बन जाता इस मिथ्या धारणाके कारण जगत जीवन बन है। यह पुरुष नहीं रहता पुरुषोत्तम हो जाता है। जाता है। उसमें तन्मयता पैदा हो जाती है, मोह और ' इस आत्मा और परमात्मामें कितना अन्तर है। ममता जग जाती है । यह ममता जगतकी तरङ्गोंसे तरदोनोंके बीच भूल-भ्रान्ति, मिथ्यात्व-अविद्या, मोह तृष्णा गित हो अपनी तृष्णामयी तरङ्गोंसे झुला झुलाकर जीव का अथाह सागर ठाठे मार रहा है । जो धीर वीर अपने को अधिक अधिक जगत्की ओर उछालती है । इस ध्रुवलक्ष्य, सद्ज्ञान और पुरुषार्थ बलसे इस दूरीको लाँघ- तरह यह संसार-चक्र आगे ही आगे चलता रहता है। कर इस पारको उस पारसे मिला देता है । मर्त्यको इस तरह यह जीव प्रकृतिसे सर्वथा भिन्न होने पर भी अमृतसे मिला देता है वह निस्संदेह सबसे बड़ा कला- प्रकृति समान देहधारी बना है । तुच्छ और सपरिमाण कार है । वह साक्षात् संसार-सेतु है, तीर्थकर है । वह बना है । नाम-रूप-कर्मवाला बना है। विविध सम्बंध लोकतिलक है, जगतवन्ध है । काल उसका द्वारपाल वाला बना है । जन्मने और मरने वाला बना है। . है, इंद्र, चंद्र उसके चारण हैं, लक्ष्मी, सरस्वती, शक्ति इस तरह ये मिथ्यात्व, अज्ञान और मोह जन्म जरा उसके उपासक हैं। मृत्यु के संसारिक लौकिक दुःखी जीवनके मूल कारण . हैं । ये ही जीवनके महान शत्रु हैं । इनका विजय ही जीवन अभ्युदयकी रुकावटः-- विजय है । जिसने इन्हें जीत लिया उसने दुःख शोकको इस जीवन अभ्युदयमें भूल,अज्ञान,मोह ही सबसे बड़ी जीत लिया, जन्म मरणको जीत लिया, लोक परलोकको रुकावट है, इनके आवेशमें कुछका कुछ सुझाई देता जीत लिया। इनका विजेता ही वास्तवमें विजेता है, है । कहींका कहीं चला जाना होता है । जो पर है, अ- जिन है, जिनेन्द्र है अर्हन्त है। सत् है, अनात्म है वह स्व, सत् और आत्म बन जाता है । जो सत् और आत्म है वह भ्रम मात्र हेय बन जाता जीवन-सिद्धि का मार्गःहै । कैसी विडम्बना है । यह मिथ्यात्व कितना प्रभावशाली । है। जो बाह्य है, जड़ है, सदा बनता और बिगड़ता । __भूल भुलैय्याका अंत उसके पीछे पीछे चलनेसे नहीं होता, न उसकी असलियतसे मुँह छुपाकर बैठनेसे होता है, मिलता और बिखरता है वह पुद्गलमयी लोक ब्रह्म है । न प्रमादमें पड़े रहनेसे होता है, वह मरीचिका है, लोक बन गया है, वह पुद्गलमयी शरीर ब्रह्म बन गया ___ वह आगे ही आगे भागती रहती है । वह सब बोरसे है । वह पुद्गलमयी धन धान्य सम्पदा बन गया है । घेरे हुये है । उससे दौड़कर छुपना नहीं हो सकता ! उसमूढ आत्मा इनके नामको वैभव, इनके रूपको सुन्दरता इनके कर्मको बल समझने लग गया है। इनके भोगको उत्तराध्ययन ६, ३४-३६, २३, ३८, धम्मपर सुख, इनकी सन्ततिको अमरता मानने लग गया है। ८.४ धर्मरसायन ॥१३॥

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