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अनेकान्त
[चैत्र, वीर निर्वाण सं०२४६६
हैं जिससे राग द्वेष और विषय कषायकी मंदता होती के द्वारा भी अपने भावोंकी शुद्धि नहीं की जाती है हो और अपनी आत्मा शुद्ध होती हो, तब तो वे किन्तु भाव हमारे चाहे कुछ ही हों, तीर्थ पर जाने से क्रियायें लाभदायक और जरूरी हैं और यदि इस ही महापुण्यकी प्राप्ति होती है, इस ही श्रद्धासे जाते विधिसे की जाती हों जिससे रागद्वेष और विषय हैं। दान देनेके लिए भी करुणा आदिकी जरूरत नहीं, कषायोंकी कुछ भी मंदता न होती हो, तो वे सब किंतु देना ही दान है । देनेसे पुण्यकी प्राप्ति होती है, धर्म क्रियायें भी एक मात्र ढौंग और संसारमें ही इस ही वास्ते दिया जाता है यहां तक कि कोई २ भ्रमानेवाली हैं-संसारसे तिराने वाली नहीं हो तो अपने किसी कष्टके निवारणार्थ ही दान देने सकती हैं। .
लगते हैं । इसी तरह दूसरेके द्वारा पूजन कराना, यहां आजकल बहुधा हमारी दशा ऐसी ही हो रही तक कि नित्य पूजन करते रहने के वास्ते कोई नौकर है, जिससे धर्म-क्रियाओं द्वारा हमने अात्म-शुद्धि रख देना भी धर्म साधन समझते हैं । गरज़ कहाँ तक करना, रागद्वेष और विषय कषायों को मंद करना तो गिनाया जाय. हमारी तो सब ही क्रियायें थोथी रह विल्कुल भुला दिया है, किन्तु बिना आटे दालके एक गई हैं। मानो जैनधर्म ही पृथ्विी परसे लोप हो मात्र भाग जलाया करनेके समान, मात्र वाह्य क्रिया- गया है। ओंका करना ही धर्म समझ लिया है और यह ही हम यह नहीं कहते कि यह सब क्रियायें धर्मकरना शुरू कर दिया है। यदि हम पंचपरमेष्ठीका क्रियाये नहीं हैं, जरूर हैं और अवश्य हैं । इन वाह्य जाप करते हैं तो उनके वीतराग रूप गुणों को जाननेकी क्रियाओं के बिना तो धर्म-साधन हो ही नहीं सकता जरूरत नहीं समझते, जिनका हम जाप करते हैं है। परन्तु आटा दालके बिना अग्नि जलानेके समान, . कोई २ तो पंचनमस्कारका जाप करते हुए उसके अर्थके यदि असली ग़रजको छोड़कर केवल ये वाह्य क्रियायें जाननेकी भी जरूरत नहीं समझते, किन्तु मन्त्रके ही की जावें तो यह धर्म क्रियायें नहीं हैं । केवल शब्दों वा मंत्रोंका मुंहसे निकलते रहना ही काफ्नो इन वाह्य क्रियाओं को ही धर्म मानना कोरा मिथ्याव समझते हैं । और कोई कोई तो उलटा अपने राग- है और इनको फिर जैनधर्मकी क्रियायें बताना तो द्वेष और विषय कषायकी सिद्धिके वास्ते ही इन मन्त्रों जैनधर्मको लजाना है। परन्तु अफ़सोस है कि जब भी को जपते हैं । अनेक भाई बिना अर्थ समझे भक्तामर इनमें सुधार करनेकी आवाज़ उठाई जाती है, तब ही स्तोत्रके संस्कृत काव्योंको पढ़ कर ही अपने सांसारिक हमारे भोले भाई ही नहीं किन्तु अनेक विद्वान पंडित कार्यों की सिद्धि हो जानेकी आशा किया करते हैं। भी चिल्ला उठते हैं कि यह तो साक्षात् धर्मपर ही उपवासके दिन निराहार रहना ही काफ़ी समझते हैं। कुठाराघात है, जो हो रहा है वह ही होने दो, असली उस दिन सर्वथा प्रारम्भ त्याग कर धर्म सेवनमें ही दिन या नक़ली जो भी क्रिया हो रही है उस ही से जैनधर्म व्यतीत करना ज़रूरी नहीं समझते। इस ही कारण का नाम कायम है, नहीं तो यह भी नहीं रहेगा। संसारके सब कार्य करते हुए भी एक मात्र निराहार परन्तु हम इसके विरुद्ध यह देखते हैं कि आजकल रहनेसे ही उपवासका होना समझ लेते हैं । तीर्थयात्रा- अन्धश्रद्धा वाले लोग कम होते जाते हैं और परीक्षा