Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 30
________________ १०६ अनेकान्त [चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६ पंचास्तिकायरूप द्रव्योंमेंसे पुद्गलोंको रूपी बत- 'द्रव्य सहभावि गुणों तथा क्रमभावि-पर्यायों वाला लानेका फलितार्थ यह होता है कि जीव, धर्म, अधर्म, होता है।' और आकाश, ये चार द्रव्य अरूपी हैं-स्पर्श, रस,गंध, यह सूत्र उमास्वातिके 'गुणपर्ययवद्व्यं सूत्रसे कुछ और वर्णसे रहित अमूर्तिक हैं । यह सूत्र और उमा- विशेषताको लिये हुए है। इसमें गुणका स्वरूप सहभावी स्वातिका चौथा सत्र अक्षरसे एक ही हैं। और पर्यायका क्रमभावीभी बतला दिया है । । धर्मादेरक्रियत्वं ॥४॥ कालश्च ॥६॥ 'धर्म प्रादिके प्रक्रियत्व है। __'काल भी द्रव्य है। यहाँ 'श्रादि' शब्दसे अधर्म और श्राकाशका संग्रह यह सूत्र और उमास्वातिका ३६ वाँ सूत्र अक्षरसे किया गया है, क्योंकि पंचास्तिकायमें धर्म द्रव्यंके बाद एक हैं। ये ही पाते हैं। ये तीनों द्रव्य क्रियाहीन हैं। जब ये अनंतसमयश्च ॥१०॥ क्रियाहीन हैं तब शेष जीव और पुद्गल द्रव्यक्रिया- ( कालद्रव्य ) अनन्त समय ( पर्याय ) वाल। वान् हैं, यह सूत्र-सामर्थ्यसे स्वयं अभिव्यक्त हो जाता है।' . है । उमास्वाति के 'निष्क्रियाणि च' सूत्रका और इसका यह सत्र उमास्वाति के 'सोऽनन्तसमयः'सूत्र के साथ एक ही प्राशय है। बहुत मिलता जुलता है और एक ही आशयको लिये . जीर्वादेर्लोकाकाशेऽवगाहः ॥५॥ . हुए है। ___'जीवादिकका लोकाकाशमें अवगाह है।' __गुणानामगुणत्वं ॥११॥ ___ यहाँ 'श्रादि' शब्दसे पुद्गल, धर्म, और अधर्म गुणोंके गुणत्व नहीं होता।' .का संग्रह किया गया है-चारों द्रव्योंका अाधार लोका- गुण स्वयं निर्गुण होते हैं । गुणोंमें भी यदि अन्य काश है । आकाश स्वप्रतिष्ठित-अपने ही आधार पर गुणोंकी कल्पना की जाय तो वे गुणी, गुणवान् एवं स्थित है इसलिये उसका अन्य आधार नहीं है। यह द्रव्य हो जाते हैं, फिर द्रव्य और गुणमें कोई विशेषता सत्र और उमास्वतिका १२ वाँ 'लोकाकाशेऽवाग्रहः' नहीं रहती और अनवस्था भी आती है । यह सत्र उमासूत्र प्रायः एक ही हैं। स्वाति के 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणा:' इस सूत्र (नं. सत्त्वं द्रव्यलक्षणं ॥६॥ ४१, श्वे० ४० ) के समकक्ष है। 'द्रव्याश्रयाः' पदका श्राशय इससे पर्व ८ वें सत्र में 'सहभावी' विशेषण के उत्पादादियुक्त सत् ॥७॥ द्वारा व्यक्त कर किया गया है। 'द्रव्यका लक्षण सत्व ( सत्काभाव ) है।' । . इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे 'उत्पाद आदि ( व्यय, धौव्य ) से जो युक्त है वह . पंच मोध्यायः ॥५।। सत् है।' ____ इस प्रकार श्री वृहत्प्रभाचन्द्र-विरचित तत्वार्थसूत्र में ..ये सत्र उमास्वातिके 'सद्व्यलक्षणं' और 'उत्पाद- पाँचवाँ अध्याय समाप्त हुआ।' व्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्' इन सूत्रोंके साथ पूर्ण सामंजस्य (आगामी किरणमें समाप्त) रखते हैं और एक ही आशयको लिये हुए हैं । सहक्रमभाविगुणपर्ययवद्र्व्यं ॥८॥ * श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें इसके अनन्तर 'इत्येके' जुड़ा हुआ है और इसे ३८ नम्बर पर दिया है।

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