Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ वर्ष ३, किरण ६] प्रभाचन्द्रका तत्वार्थसूत्र ४०१ 'वैमानिकाः' और 'कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च' ऐसे दो उमास्वातिने 'दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम्' इत्यादि सूत्र पाये जाते हैं । अनेक सूत्रोंमें इसी आशयको वर्णित किया है। इस सौधर्मादयः षोडशकल्पाः ॥३॥ सूत्रका 'सामान्यतया' पद खास तौरसे ध्यान देने योग्य 'सौधर्म श्रादि सोलह कल्प हैं।' है, और उससे विशेषावस्थामें किसी अपवादके होनेकी इस सूत्रमें कल्पोंकी संख्या १६ निर्दिष्ट करनेसे भी सूचना मिलती है। 'श्रादि' शब्दके द्वारा ईशान आदि उन १५ स्वर्गोंका इति श्रीवृहत्प्रभाचंद्रविरचिते तत्त्वार्थसूत्रे संग्रह किया गया है जिनके नाम उमास्वाति के दिगम्बर चतुर्थोध्यायः ॥४॥ पाठानुसार १६ वे सूत्रमें दिये हैं। 'इस प्रकार श्री वृहप्रभाचंद्रविरचित तत्वार्थसूत्र में ब्रह्मालयाः लौकांतिकाः ॥४॥ चौथा अध्याय पूर्ण हुआ।' 'लोकान्तिक (देव) ब्रह्मकल्पके निवासी होते हैं।' पंचवाँ अध्याय यह सूत्र और उमास्वातिका 'ब्रह्मलोकालया लौकान्तिकोः' सूत्र प्रायः एक ही है । पंचास्तिकायाः॥१॥ प्रैवेयकाद्या अकल्पाः ॥५॥ 'पाँच अस्तिकाय हैं।' ... 'वयेक आदि प्रकल्प हैं।' यहाँ अस्ति कायके लिये पाँचकी संख्याका निर्देश यहाँ 'श्रादि' शब्दसे विजय, वैजयत्त, जयन्त, अ- करनेसे श्रागमकथित जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और पराजित और सर्वार्थसिद्धि नामके उन आगमोदित वि- आकाश ऐसे पांच द्रव्योंका संग्रह किया गया है। इनमानोंका संग्रह किया गया है जिनका उमास्वातिके भी का अस्तित्व और बहुप्रदेशत्व गुणोंके कारण 'अस्तिउक्त १६ वे सूत्र में उल्लेख है । उमास्वातिने भी 'प्राग्गै- काय' संज्ञा है उमास्वातिने इनका संग्रह 'अजीवकायावेयकेभ्यः कल्पाः' इस सूत्रके द्वारा इन्हें 'अकल्प' सूचित धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' और 'जीवाश्च' इन सूत्रों किया है। (नं० १, ३) में किया है। ___सामान्यतो देवनारकाणामुत्कृष्टेतरस्थितिस्त्रय नित्यावस्थिताः ॥२॥ स्त्रिंशत्सागराऽयुताब्दाः ॥६॥ ___(पांचों अस्तिकाय) नित्य हैं और अवस्थित हैं।' ... 'सामान्यतया देवनारकोंकी उत्कृष्ट स्थिति ३३ ये पाँचों द्रव्य अपने सामान्य-विशेषरूपको कभी सागर और जघन्य स्थिति १० हजार वर्षकी है।' छोड़ते नहीं, इसलिये नित्य हैं और अस्तिकायरूपसे लो। अपनी पाँचकी संख्याका भी कभी त्याग नहीं करते__सागरप्रयुताब्दाः, यह पाठ इसलिये ठीक नहीं चार या छह श्रादि रूप नहीं होते-इसलिये अवस्थित है कि 'प्रयुत' शब्द १० लाखका वाचक होता है. हैं । उमास्वातिका 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र इस उतनी जघन्य स्थितिका होना सिद्धान्तके विरुद्ध सूत्रके साथ मिलता जुलता है। 'अयुत' का अर्थ १० हजार होता है, इसलिये उसीका रूपिणः पुद्गलाः ॥३॥ प्रयोग ठीक जान पड़ता है। 'पुद्गल रूपी होते हैं।

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