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वीरका जीवन-मार्ग
[ले.-श्री जयभगवान जैन, बी. ए. एस एस. बी. वकील]
जीवनकी विकटता:
है, कितना वेदनासे भरा है। उसके लिये कैसे कैसे
श्राघात-प्रघात सहन करता है ! कैसी २ बाधाओं विपजीवन सुनहरी प्रभातके साथ उठता है, अरुण
दाओंमेंसे गुज़रता है ! परन्तु यह सब हुछ होने पर भी "सूर्यके साथ उभरता है, उसके तेजके साथ
सिद्धिका कहीं पता नहीं। यदि भाग्यवश कहीं सिद्धि खिलखिलाता है, उसकी गति के साथ दौड़ता-भागता है,
हाथ भी आई तो वह कितनी दुःखदायी है ? वह प्राप्तिउसकी संध्याकी छायाके साथ लेम्बा हो जाता है और
कालमें आकुलतासे अनुरञ्जित है, रक्षाकालमें चिन्तासे असके ग्रस्त होने पर निश्रेष्ठ हो सो जाता है।
संयुक्त है और भोगकालमें क्षीणता और शोकसे ग्रस्त सुबह होती है शाम होती है,
है। इसका आदि, मध्य और अन्त तीनों दुःख पूर्ण उम्र यों ही तमाम होती है।
हैं ! यह वास्तवमें सिद्धि नहीं, यह सिद्धिका आभाससो क्या श्रम और विश्राम ही जीवन है ? काम
मात्र है । इस सिद्धि में सदा अपूर्णता बसती है। यह और अर्थ ही उद्देश है ? साँझ सवेर-बाला ही लोक
सब कुछ प्राप्त करने पर भी रङ्क है, रिक्त है, वाँछा
... . यदि यों ही श्रम और विश्रामका सिलसिला बना
यह ज़िन्दगी दो रंगी है । इसकी सुन्दरतामें कुरूरहताः यदि यों ही काम और अर्थका रंग जमा रहता
पता बसती है। इसके सुखमें दुःख रहता है। इसकी तो म्मा ही अच्छा था । जीवन और जगत कभी प्रश्नके
हँसीमें रोना है। इसके लालित्यमें भयानकता है। विषय न बनते । पस्तु जीवन इतमी सीधी-साधी चीज
इसकी आसक्तिमें अरूचि है। इसके भोगमें रोग है, नहीं है। माना कि इसमें मुखप्न हैं, कामनायें हैं,
ए, योगमें वियोग है, विकास में झस है, बहारमें खिजाँ है, आयायें हैं, पर अत्यन्त रोचक, अत्यन्त प्रेरक है। जी
यौवनमें जरा है । यहाँ हर फूल में शूल है, इतना ही चाहता है कि इनके आलोकमें सदा जीवित रहे, परन्तु
नहीं यह समस्त ललाम लीला, यह समस्त उमंगभरा इन ही के साथ कैसे कैसे दुःस्वप्न है, असफलतायें हैं,
जीवन, यह समस्त साँझ सकेर बाला लोक मृत्युसे 'निराशायें हैं, विषाद है ? यह कितने कटु और घिना
"" व्याप्त है! . वने है। जी चाहता है कि इनके आलोकसे छुपकर जीवन के मूल प्रश्न:-- कहीं चला जाये।
यह देख दिल भयसे भर आता है, अनायास कितना खेद है कि जीवनको कामना मिली पर शंकायें उठनी शुरू होती हैं। क्या यह ही लोक है जहाँ सिद्धि न मिली ! उस सिद्धि के लिये यह कितना आतुर कामना का तिरस्कार है, आशाका अनादर है, पुरुषार्थ