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अनेकान्त
[चैत्र, वीर-निर्वाण सं०२४६६
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आलोचना प्रतिक्रमणादि करते रहना भी ज़रूरी ठहराया हो जाते हैं और सब संकट दूर कर इच्छित मनोकामना है जिससे हर रोज़की अपनी ग़लती उनको मालूम होती पूरी करनेको तय्यार हो जाते हैं, ऐसी अन्य मत वालों रहे और उसका सुधार भी प्रतिदिन होता रहे । अगर को मान्यता है। इस कारण उनकी सब धर्म क्रियायें कोई दोष विशेष प्रकारका होगया है तो उस दोषको प्रायः वाह्य साधन रूप ही होती हैं। प्राचार्य महाराजके सामने साफ़ २ प्रकट कर दिया परन्तु जैनधर्मका सिद्धान्त इससे बिल्कुल ही विलजाय और जो कुछ वे दंड दें उसको अपने सुधारके क्षण है। जैनधर्ममें तो किसी भी ईश्वर परमात्मा वा अर्थ निस्संकोच भावसे स्वीकार किया जाय । यदि मुनि देवी देवताको प्रसन्न करना नहीं है, किन्तु अपनी ही के अन्दर कोई बहुत ही ज़्यादा विकार श्रागया तो आत्माको विषय कषायों और राग द्वेषके मैल से शुद्ध प्राचार्य महाराजको उचित है कि उसके सुधारके वारते करना है । जिस प्रकार बीमारको स्वास्थ्य प्राप्त करने के उसको मुनि पदसे ही अलग कर देवें और फिर अाहि- वास्ते औषध आदिके द्वारा अपने शरीरमें से दोषोंका स्ता २ उसका सुधार कर दोबारा मुनि दीक्षा देखें। निकाल देना ज़रूरी है, शरीरके जितने जितने दोष इस प्रकार जब मुनियों तकमें विकार आजानेकी सम्भा- शांत होते रहते हैं उतना ही उतना उसको स्वास्थ्य वना और उनका सुधार होना ज़रूरी है तब श्रावकोंमें लाभ और सुख शांतिकी प्राप्ति होती रहती है। तो विकार उत्पन्न होते रहनेकी बहुत ही ज़्यादाःसम्भा- उसी प्रकार धर्म-सेवनके द्वारा राग द्वेष और विषयवना है, उनमें भी पहली प्रतिमा धारी अव्रती श्रावकों कषायोंमें जितनी कमी होती है उतनी ही उतनी में तो विषय कषायोंकी अधिकताके कारण विकारोंके उसकी आत्माकी शुद्धि होती जाती है और सुख पैदा होते रहनेकी और भी ज्यादा सम्भावना और उन शांति मिलती जाती है ।अतः जैनधर्ममें वे ही साधन का सुधार होते रहनेकी और भी ज्यादा ज़रूरत है। धर्म साधन माने जाते हैं और वही क्रियायें धर्म क्रियायें
जैनधर्मके सिवाय अन्य मतोंमें तो जिनमें एक समझी जाती हैं, जिनसे राग द्वेष और विषय कषायों ईश्वर वा अनेक देवी देवताओं के द्वारा ही जीवोंको में मंदता पाती हो और होते होते उनका सर्वथा ही सुख-दुख मिलना माना जाता है, उस एक ईश्वर वा नाश हो जाता हो । दूसरे शब्दोंमें यूं कहिये कि जैनदेवी देवताओंको प्रसन्न करते रहना ही एक मात्र धर्म धर्ममें अन्य मतोंकी तरह बाह्य क्रियायें करना ही धर्म साधन ठहराया गया है-उन्हींके प्रसन्न होनेसे पूर्वकृत नहीं है किन्तु इसके विपरीत जैनधर्मका असली धर्म पाप क्षमा हो जाते हैं और बिना पुण्य कर्म किये ही साधन एकमात्र राग द्वेष और विषय कषायोंसे अपनी सब सुख मिल जाते हैं। उनको प्रसन्न करनेके वास्ते प्रात्माको शुद्ध करना ही है। बाह्य क्रियायें तो इस भी उन मतोंमें भेंट चढ़ाने, स्तुति गाने, मुखसे नाम असली धर्म-साधनकी सहायक ही हो सकती हैं । रागजपते रहने या दूसरोंसे जाप करा देने,गंगा आदि नदियों द्वेष और विषय कषायोंकी मंदताके बिना कोई भी में नहाने आदिकी ऐसी बाह्य क्रियायें निश्चित् हैं, क्रिया धर्म क्रिया नहीं मानी जाती है । परन्तु मनुष्य जिनमें अन्तरंगकी शुद्धिकी प्रायः कुछ भी ज़रूरत नहीं के लिये बाह्य क्रियोंका करना आसान होता है और पड़ती है, बाह्य विधियों के पूरा होनेसे ही देवता प्रसन्न अंतरंगको शुद्ध करना बहुत ही कठिन । मनुःप धर्मके