Book Title: Anekant 1940 04
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ वर्ष ३, किरण ६] धर्माचरणमें सुधार ३८७ नामसे सर्व प्रकारके शारीरिक कष्ट उठा सकता है और बतलाते हुए जैनधर्मको भी बदनाम करते हैं और बड़ी धन भी खर्च कर सकता है, क्योंकि ऐसा उसको अपने भारी क्षति पहुँचाते हैं। सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके वास्ते सदा ही करना पड़ता वाह्य क्रियायें जब उस उद्देश्यकी सिद्धिके वास्तेकी है। सांसारिक मनुष्य कष्ट उठाने और धन खर्च करने जाती हैं जिनकी वे साधन हैं। तब तो वे क्रियायें का तो पूर्ण रूपसे अभ्यासी ही होता है। संसारी बहुत ही कार्यकारी और जरूरी होती हैं ! लेकिन अगर मनुष्य तो अपनी आजीविका आदिके वास्ते भी फौजमें असली ग़रजको छोड़कर सिर्फ वाह्यक्रियायें ही की जावें भरती हो कर और युद्ध में जाकर अपनी जान तककी तो वे एक प्रकारकी मूर्खता और नादानी ही होती भी परवाह नहीं करता है। माता अपने बच्चे की है। जैसा कि पागके बिना भोजन नहीं पक सकता पालनाके वास्ते सब कुछ तपस्या करनेको तय्यार होती है। भोजन पकानेके वास्ते पागकी सहायताकी प्रत्य है । व्याह शादी आदि अनेक गृहस्थ कार्यों में संसारी न्त जरूरत है। परन्तु यदि कोई पाटा दाल आदि मनुष्य करज़ लेकर भी इतना खर्च कर देते हैं कि उमर भोजनकी सामग्रीके बिना ही नित्य चूल्हेमें भाग भर भी उसे नहीं चुका सकते हैं। ग़रज़ कष्ट उठाना और जलाया करै और तवा गर्म किया करै तो क्या वह पैसा खर्च करना तो मनुष्यके लिये आसान है परन्तु मुर्ख नहीं समझा जायगा ? इसी प्रकार यदि कोई अन्तरंगसे राग द्वेषको घटाना और विषय कषायोंको पढ़ना तो न चाहे एक अक्षर भी, किन्तु पुस्तकें लेकर कम करना बहुत ही मुश्किल है । इस कारण जैनियोंके अध्यापकके पास अवश्य जाया करे और उसकी सेवा लिये असली धर्म-साधनसे फिसलना-अन्तरंग भी सब तरहसे किया फिर तो क्या उसकी यह सब शुद्धिको छोड़कर वाह्य क्रियाओंको ही सब कुछ समझ- कोशिश व्यर्थ नहीं है ? इस ही प्रकार यदि कोई लेना-बहुत ज्यादा सम्भव है। विशेषकर जब वे बीमार वैद्य हकीम तो बढ़िया २ बुलाया करे और अपने पड़ौसी अन्यमतियोंको सिर्फ़ वाह्य क्रियाओं उनकी बताई औषधि भी तय्यार कराया करे, परन्तु द्वारा ही धर्म साधन करता देखते हैं-यहां तक कि दवाका खाना तो दूर रहा, उसको चाखकर देखनेका दूसरे २ पुरुषों के द्वारा पूजन और जाप श्रादि करानेसे भी साहस न किया करे, उल्टा कुपथ्य सेवन ही करता भी उनका धर्म साधन हो जाता है, तो इस सहज रहा करे तो क्या उसको कुछ स्वास्थ्य लाभ हो रीतिका असर जैनियों पर भी पड़ता है और वे भी सकेगा ? इसी ही प्रकार यदि कोई खेतमें बीज तो अपनी अन्तरंग शुद्धिको छोड़कर केवल वाह्य क्रियायें डालना न चाहे किन्तु बाहना, जोतना क्यारियां ही करने लगजाते हैं । इस प्रकारसे अनेक भारी विकार बनाना, पानी सींचना और पहरा देना आदि सब जैनियोंमें आते रहते हैं जिनका सुधार होते रहना आवश्यक क्रियायें बड़ी सावधानीके साथ करता रहा अत्यन्त श्रावश्क है। नहीं तो ऐसे विकारोंके द्वारा करै, तो क्या उसके खेतमें कुछ पैदा होगा या उसकी जैनी अन्यमतके सिद्धान्तोंको मानते हुए भी और सब मेहनत निष्फल ही जायगी ? ऐसा ही धर्म साधन अन्यमतके अनुसार ही धर्म साधन करते हुए भी इन की सहायक सब ही वाह्य क्रियाओंकी बाबत समझ अपनी सब मान्यताओं और साधनोंको ही जैनधर्म लेना चाहिए । यदि वे क्रियायें इस विधिसे की जाती

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