Book Title: Anekant 1939 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 15
________________ बंगीय विद्वानोंकी चैन - साहित्य में प्रगति वर्ष ३, किरण २] पृ० ८०१ ७ । एवं उपरोक्त परिषद द्वारा स्वतन्त्र रूपसे जैनबालाविश्राम के छात्रगणों के सहायसे प्रकाशित । द्रव्य इस निबन्धका हिन्दी अनुवाद भी ट्रैक्टरूपसे श्रा त्मानंद जैन ट्रैक्ट-सोसायटीसे प्रकाशित हुआ था । ४. जैनधर्मेर वैशिष्ट्य - भा०व० दि ० जैनपरिषद बिजनौर से जैन ट्रैक्ट नं ० १ रूपसे प्रकाशित, श्रीयुत कामता - प्रसादजी जैन के प्रयत्न एवं सूरतनिवासी मूलचंद किशनदास कापड़िया के आर्थिक सहायसे प्रकाशित पृ० १५ | इसका हिन्दी अनुवाद भी उपर्युक्त सोसायटी द्वारा प्रकाशितहो चुका है । ५. जैन दिगेर दैनिक षट्कर्म - साहित्य परिषद् पत्रिका भा० ३१ पृ० ७२६–७३६ में प्रकाशित | इसका भी हिन्दी अनुवाद उपर्युक्त सोसायटी द्वारा छप चुका है । ६. जैनदिगेर षोडश संस्कार - प्रका० विश्ववानी १३३४ आषाढ़ पृ० १६०-६४ । ८. रक्षाबन्धन ( उपाख्यान ) - प्र० एजुकेशन गजट १३३१ ता० २०-२७ श्राषाढ पृ० १२/४४ व १०६।११० ६. दीपालिका ... प्र० एजुकेशन गज़ट १३३१ ताः १३ पृ० २६६-७१ १०. हिन्दू जैन कालविभाग - प्र० ' कायस्थसमाज' १३३२ भाद्र पृ० २६६, २७२ ११. पार्श्वनाथ चरित्र – प्र० 'तत्त्वबोधिनी' पौष १८४६ पृ० २६६-६८, चैत्र पृ० ३३६-३८, जेष्ठ १८४७ पृ०५०-५३, कार्तिकं पृ०२१७-२१६ । इसे स्वतन्त्र ट्रैक्ट रूप से प्रकाशित करना चाहिये । • • १२. परसनाथ – प्र० ‘शिशुसाथी' पौष १३३३ पृ० ३५६-६१ 要 अंग्रेजी में है १३. Need of the study of Jainism--- ___ Vir VIII N. I. अक्टूबर १६३५ पु०३७–३६ १४. Jainism in Bengal - Vir V. III N. 5-12-3 पृ० ३७०-७१ १५. Tradition about Vanaras and Raksasas-Indian Historical quarterly V. I. पृ०७७६-८१ १६. Pareshnath — Sanskrit Collegiate School Magazine जनवरी १६२५ भा० २ संख्या १ १७. समालोचनाएँ — कई जैन ग्रन्थोंकी - इण्डियन हिस्टोरीकल क्वार्टरली, इण्डियन कलचर व मोडर्न रिव्यू में प्रकाशित । उपर्युक्त सूची भेजने व कई बंगाली विद्वानोंके पते सूचित करने व पत्रव्यवहारद्वारा चक्रवर्ती महोदय से मुझे अच्छी सहायता मिली है, एतदर्थं आपको धन्यवाद देता हूँ । ३ श्रीसरतचन्द्रघोषाल M. A. B. L. District Magistrate Coochbihar भट्टाचार्यजीकी भांति आपका भी जैनदर्शनसम्बन्धी अध्ययन बहुत विशाल एवं गंभीर है ! श्री भट्टाचार्यजीको प्रकाशन व्यवस्था के कारण लिखनेकी इतनी अनुकूलता नहीं रही और आपको बहुत अधिक अनुकूलता मिली अब भी है, अतएव आपने बहुत अधिक कार्य किया है । आपके विशाल कार्यकी श्रोर देखा जाय तो सब बंगीय विद्वानोंसे अधिक जैनीम के विषय में आपने लिखा है । श्रजिताश्रम लखनऊ से प्रका1 शित The sacred books of the Jain series

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