Book Title: Anekant 1939 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 33
________________ वर्ष ३. किरण २] ऊँच-नीच-गोत्र-विषयक चर्चा १७१ इदि गोदं" का भाव पृथक् है । “भवमस्सिय णी- नहीं है कि बिना आर्योंका आचार पालन किये या चुच्चं" पदसे नरक तियंचभवके सब जीव नीच व देव बिना सकल संयमी हुए भी वे आर्य और उच्च गोत्री हैं, मनुष्य सब ऊंचगोत्री हैं यह भाव ध्वनित नहीं होता, बल्कि उसमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि वे मातृपक्षकी बल्कि यह ध्वनित होता है कि नीचता व उच्चता प्रत्येक अपेक्षा म्लेच्छ अर्थात् नीच गोत्री ही हैं। हाँ, वे भवके आश्रित है अर्थात् सारे संसारके जो चार प्रकारके आर्योका आचार पालन करनेसे या पालन करते रहनेसे देव, मनुष्य नारकी, तिथंच जीव हैं उनके प्रत्येक भवमें मीच गोत्री (म्लेच्छ) से उच्च गोत्रो हो सकते हैं। नीचता व ऊँचता होती है, अतः उन सभीके नीच व आगे लिखा है कि 'कुभोगभूमियां (मनुष्य) पशु ऊंच दोनों गोत्रोंका उदय है । प्रत्येक भव में नीचता व ही है इन्हें किसी कारणसे मनुष्य गिन लिया है, परन्तु ऊंचता होनेसे यह प्रयोजन है कि प्रत्येक जीव अग्ने इनको प्राकृति-प्रवृत्ति, और लोकपूजित कुलोंमें जन्म न दुराचरण व सदाचरणसे नीच व ऊँच कहलाता है। होनेसे इन्हें मीच गोत्री ही समझना चाहिये ।' परन्तु ___ आगे लिखा है कि गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी गाथा सारा शरीर मनुष्यका और मुख केवल पशुका होनेसे २८५ में मनुष्यगति और देवगतिमें उच्च गोत्रका उदय ही वे सर्वथा पशु नहीं कहला सकते, उन्हें शास्त्र में बतलाया है, यह तो ठीक है परन्तु “उच्चदओ रणर- मुखाकृति भिन्न होनेसे ही कुमानुष और म्लेच्छ कहा देवे” इस पदसे मनुष्यों में नीच गोत्रका उदय सर्वथा है, वे मंदकषाय होते हैं मर कर देव ही होते हैं, मंदहै ही नहीं ऐसा प्रमाणित नहीं होता। कषाय होनेसे सदाचरणीही कहे जायेंगे और सदाचरणी __ श्रागे लिखा है कि म्लेच्छखण्डके सभी ग्लेच्छ होनेसे उच्च गोत्री ही कह लावेंगे और हैं । उनकी प्रवृत्ति सकल संयम ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वे उच्चगोत्री हैं, मंदकषाय रूप होनेसे उच्च ही है। लोक पृजित कुल परन्तु म्लेच्छ लोग जब आर्यखण्डमें श्राकर आर्योका और अजित कुल कर्म भूमिमें ही होता है, वहाँ श्राचार पालन करेंगे व सकलसंयम ग्रहण कर लेंगे कुभोग भूमि है, वहां सब समान हैं, लोक पूजित व तब वे उच्च गोत्री हो जावेंगे, 8 इससे पहले वे ओच्छ- अपूजितका भाव वहां नहीं है । लोकपूजित कुलमें खण्ड में रहें व आर्यखण्डमें आकर रहें, बिना पार्योंका जन्म होनेसे उच्च गोत्री व अपूजित कुलमें जन्म होनेसे प्राचार पालन किये उच्च गोत्री न होकर नीच गोत्री नीच गोत्री कर्मभूमिमें ही माना जाता है । कुभोग ही हैं । श्री जयधवल और श्री लब्धिसारका जो भूमि या भोगभुमिमें नहीं माना जाता । बल्कि भोग प्रमाण दिया है उसपे इतना ही सिद्ध है कि म्लेच्छ भूमियां उच्चगोत्री ही होते हैं जिनको पूज्य बाबू साहब लोग सकल संयमको योग्यता रखते हैं, वे सकल संयमके ने भी अपने लेखमें स्वीकार किया हैं। वे नीच गोत्री पात्र हैं, उनके संयम प्राप्तिका विरोध नहीं है, उनमें नहीं होते । और गोम्मटसार कर्मकाण्डकी गाथा संयमोपलब्धिकी संभावना है। उस प्रमाणसे यह सिद्ध नं० ३०२ "मणुसोयं वा भोगे दुव्भगच उणी च ___यदि सकल संयम ग्रहण करने के बाद उच्चगोवी संढीणतियं" आदिमें भी भोगभूमियाँ मनुष्योंमें होंगे तो यह कहना पड़ेगा कि नीच गोत्री मनुष्य भी उच्च गोत्रका उदय बतलाया है। उन कुमानुष लोगों मुनि हो सकते हैं। –सम्पादक में व्यभिचार नहीं, एक दूसरेकी स्त्री व कामकी वस्तुएँ

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