Book Title: Anekant 1939 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 49
________________ वर्ष ३. किरण २] गोत्र विचार ད༦ गोमट्टसारमें 'गोत्रकर्म' के कार्य दर्शनके लिये योजना भी मानवापेक्षित ही है । पाठकोंको विदित निम्न लिखिन गाथा है: होगा कि अमीर, गरीब, दुखिया, सुखिया, नीच, संताणकमेणागय-जीवायरणस्स गोदमिदि सरणा । ऊँच, सभ्य, असभ्य, पंडित, मूर्ख इत्यादि द्वन्द हैं उच्च णीचं चरण उच्च णीचं हवे. गोदं ॥ और ये द्वन्द ऐसे दो परस्पर विरोधी गणों के --कर्मकाण्ड १३ । द्योतक हैं जिनका अस्तित्व निरपेक्ष नहीं किन्तु सन्तानक्रमेणागत जीवाचरणस्य गोत्रमिति संज्ञा। अन्योन्याश्रित है । अतएव मनुष्य गतिको छोड़कर उच्च नीचं चरणं उच्चैनीचैर्भवेत् गोत्रम् ॥१३॥ शेष तीन गतियों जो गोत्रका एक एक प्रकार अर्थ-सन्तान क्रम अर्थात कुलकी परिपाटी- माना गया है वह अपने प्रतिपक्षीके सत्वका सूचक के क्रमसं चला आया जो जोवका आचरण उसकी और अभिलाषी है। यदि देवोंमें नीच गोत्रका, 'गोत्र' संज्ञा है । उस कुल परम्परामें ऊँचा आच- और नारकी तथा तिर्यश्चोंमें उच्चगोत्रका सम्भव रण हो तो उसे 'उच्च गोत्र' कहते हैं, जो नीचा नहीं है तो इन गतियोंमें गोत्रका सर्वथा ही अभाव आचरण हो तो वह 'नीच गोत्र' कहा जाता है। मानना पड़ेगा; क्योंकि द्वन्द गर्भित एक प्रतिपक्षी गोत्रके इस लक्षण पर गौर करते हैं तो यह गुणका स्वतन्त्र सद्भाव किसी तरहसे भी सिद्ध लक्षण सदोष मालूम होता है, और ऐमा प्रकट नहीं होता । उक्त गतियोंमें गोत्रके दो प्रकारों में से होता है कि कमभूमिके मनुष्योंकी विशेष व्यवस्था एक विशेषकी नियामकता कहनेका यह अर्थ होता पर लक्ष्य रखकर सामाजिक व्यवहार दृष्टिसे इस- है कि इन गतियोंके जीव अपनेर लोक समुदायमें की रचना हुई है। गोत्र कर्म अष्टमूल प्रकृतियोंमें समानाचरणी हैं, उनमें भेद भाव नहीं है और जब से है और इसका उदय चतुर्गतिके जीवोंमें कहा भेद भाव नहीं तो उनको उच्च या नीच किसकी है। नारकी और तिर्यञ्चोंके नीच गोत्रकी, देवोंके अपेक्षासे कहा जाय, वे खुद तो आपसमें उच्च गोत्रकी और मनुष्योंके उच्च और नीच दोनों न किसीको नीच समझते हैं न उच्च; उनमें नीच गोत्रोंकी सम्भावना सिद्धान्तमें कही है। देव व और उच्चका ख्याल होना ही असम्भव है। नारकीका उपपाद जन्म होता है; वे किसीकी इसी ख्यालसे भोग-भूमियोंके भी उच्च गोत्र सन्तान नहीं होते और न कोई उनका नियत ही कहा गया है। इससे स्पष्ट है कि गोत्रका लक्षण आचरण है। गाथोक्त गोत्रका लक्षण इन दोनों मनुष्योंकी व्यवहार व्यवस्थाके अनुसार बनाया गतियोंमें किसी तरह भी लाग नहीं होता। इसी गया है, और जिस जिस गतिके जीवोंको मनुष्यों तरह एकेन्द्रियादि सम्मूर्छन जीवोंमें भी यह लक्षण ने जैसा समझा अथवा उनके व्यवहारकी जैसी व्यापक नहीं । इसके अलावा 'आचरण' शब्द भी कल्पना की, उमीके अनुसार उन गतियोंमें उच्च मनुष्यों ही के व्यवहारका अर्थवाची है और व नीच गोत्रकी सम्भावना मानी गई है । चतुर्गति मनुष्यों ही की अपेक्षासे उक्त लक्षणमें उपयुक्त के जीवोंमें बन्धोदयसत्वको प्राप्त होने वाले गोत्र हुआ है। आचरणके साथ उच्चत्व और नीचत्वकी, कर्म तथा उसके कार्य स्वरूप गोत्रका लक्षण और

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