________________
वर्ष ३. किरण २ ]
और नीचगोत्री होना समझ में नहीं आता । ५ – कुभोग- भूमिके मनुष्य नाना प्रकारकी कुत्सित आकृतियोंके होते हैं और सुभोग- भूमिकी अपेक्षा यह भी कहा जायगा कि वे कुभोगके भोगी हैं। क्या कुभोग भूमि और सुभोग भूमिके जीवोंके
चरणों में फर्क नहीं होता ? यदि होता है तो फिर अखिलभोग-भूमि-भव उच्चगोत्री ही क्यों कहे
गये ?
गोत्र- विचार
इन सब बातोंपर विचार करने से यही मालूम होता है कि गोत्रकर्मके विषय में जैनोंका जो सिद्धा
है वह केवल मनुका, और मनुष्यों में भी 'भारतवासियोंका व्यवहार-मत है। भारतीय लोग सब प्रकारके देवी देवताओंकी उपासना करते हैं, भूत, पिशाच, यक्ष, राक्षस, कोई भी हो सबके देवालय भारतमें मौजूद हैं, सबके स्तोत्र पाठ संस्कृत भाष हैं और उनके भक्त अपने अपने उपास्योंका कीर्तन करते हैं । इसलिये जैनोंने देवमात्रको
गोत्र कहा है; क्योंकि वे मनुष्योंसे उच्च और शक्तिशाली एवं अनेक इष्टानिष्टके करनेमें समर्थ माने गये हैं । पशु और नारकियों को कोई मनुष्य अपने से अच्छा नहीं समझता, न उनके गुणाव गुणपर विचार करता है, इसलिये मनुष्यों के साधा - रण ख्यालके मुताबिक तिर्यञ्च और नरकगति में एकान्त नीच गोत्रका उदय बताया गया । यदि चतुर्गतिके जीवोंके आचरण और व्यवहारोंको दृष्टि में रखकर गोत्रके लक्षण तथा उदय व्यवस्थाका वर्णन होता तो उसमें 'सन्तानकमेणागय' पदकी योजना कभी नहीं होती, और न देव, नारकी तथा तिर्यञ्चगतिमें एकान्तरूपसे एक ही प्रकारके गोत्रका दय कहा जाता ।
१८६
गोत्रके लक्षणकी उपर्युक्त आलोचना करके हमने यह दिखला दिया है कि यह लक्षण मनुष्योंकी व्यवहार स्थिति के अनुसार बनाया गया है । इस लक्षण से निम्नलिखित बातें और निकलती हैं:
TOT
(१) जीवका बही आचरणगोत्र कहा जायगा जो कुल परिपाटी से चला आता हो, अर्थात् जो आचरण कुलकी परिपाटीके मुआफिक न होगा उसकी गोत्रसंज्ञा नहीं है और वह गोत्रकर्मके उदयसे नहीं किन्तु किसी दूसरे ही कर्मके उदयसे माना जायगा ।
(२) हरएक आचरण के लिये कुलविशेषका नियत होना जरूरी है और हरएक कुलके लिये किसी विशेष आचरणका ।
परन्तु, जैनधर्म में मानव समाजके विकासका जो वर्णन है वह कुछ और ही बात कहता है; उसको यदि सही मानते हैं तो यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि भरतक्षेत्र में एक समय ऐसा था जब मनुष्यों में न तो कोई कुल थे और न उनकी परिपाटी के कोई आचरण थे, इसलिये उस समयके जीवोंके गोत्रकर्म्मका उदय भी नहीं था । बर्तमान अवसर्पिणीके प्राथमिक तीन आरोंमें भोगभूमिकी रचना थी; भोग-भूमियोंमें कुल नहीं होते, कुलकरोंका जन्म तीसरे कालके आखीर में होता है । इस प्रकार कुलोंके अभाव में भोग-भूमियोंके चरणों की गोत्रसंज्ञा नहीं कही जायगी। यदि ऐसा कहा जाय कि समस्त भोग- भूमियों का एक ही कुल था और उनके आचरण समान थे इसलिये भोगभूमियोंके गोत्रका सद्भाव था, तो आगे कुलकरों, तीसरे कालके अन्तके भोग भूमियों तथा कर्म