________________
१६६
अनेकान्त
*
किया। कौटिल्यने अर्थशास्त्रकी रचना की, गैलीलियो ने विद्युत् शक्तिका पता लगाया, न्यूटनने गुरुत्वाकर्षणका नियम खोज निकाला, ये सब प्रकृतिक देवताओंके सच्चे उपासक थे । फिर भी मनुष्य ही थे । यदि ईश्वर को मान लिया जाय, तो वह भी स्थूल देह धारण करके ही प्राकृतिका उपभोग करता है और इस विचार से हमें भी ईश्वर होनेका पूर्ण अधिकार है । तब हम लाखों वर्षो ईश्वरके अवतार प्रतीक्षा करते हुए दुःख में क्यों पड़े रहें ?
[मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
agrके बुद्धिहत्या के कारखाने मेंजब कोई “श्रांख का धन्धा गाँठका पूरा" पहुँच जाता है, तब पहले ही प्रकोष्ठ ( कमरे) में उसे अवतारवादकी दीक्षा देकर दीक्षित उर्फ श्रात्मीय बना लिया जाया है। दीक्षा लेते ही वह अन्धश्रद्धाकी अन्धकारमयी एकान्त गुहा में प्रवेश करनेका अधिकारी बनता है । वह गुहा उस कारखानेका दूसरा प्रकोष्ठ है । उसमें लेजाकर उस साधकको भाग्यदेवका साक्षात् दर्शन कराया जाता है और सदा " जपने के लिये यह मन्त्र रटा दिया जाता हैः"व्हे है वही जो राम रचि राखा | को कर तर्क बढ़ावहि साखा ॥ "
इस मन्त्र जपते ही उसे 'नैष्कर्म्यसिद्धि' प्राप्त हो जाती है अर्थात् अपने अधःपात के लिये वह अकर्मण्य निकम्मा 'काठका उल्लू' बन जाता है। उसमें फिर यह सोचनेकी शक्तिही नहीं रहती कि भाग्य भी प्रयत्न (कर्म) का ही एक फल है।
1
कर्मके तीन विभाग हैं, सञ्चित, प्रारब्ध, क्रियमाण | इस जन्म या पूर्व जन्मोंमें जो कर्म हम कर चुके हों, वे सञ्चित हैं । उनमें से जिनका भोग श्रारम्भ हो गया हो, वं प्रारब्ध हैं और जो भोग रहे हैं, वे क्रियमाण हैं । परन्तु क्रियमाण प्रारब्धका ही परिणाम हैं, इसलिये लोकमान्य तिलक और वेदान्तसूत्रोंने संचित - केही प्रारब्ध और अनारख्ध ये दो भेद माने हैं । संचित में से जिनका भोग आरम्भ हो गया है, वे प्रारब्ध और जिनका भोग शेष है वे अनारब्ध हैं। निष्कामकर्म योग से अथवा ज्ञानसे प्रारब्धका प्रभाव हटाया जासकता है और थनारब्ध दुग्ध किये जा सकते हैं । क्योंकि मनुष्य प्रवाह में पड़े हुए लकड़ी के लट्ठ के समान नहीं है; किन्तु कर्म करने में स्वतन्त्र है । उसमें इच्छाशक्ति, क्रियाशक्ति और ज्ञानशक्ति हैं । वह पशुकी तरह पराधीन नहीं, किन्तु
पुराणों में दस अवतारोंका वर्णन है। नौ अवतार होगये हैं, दसवां बाकी है। उस दसवेंको भी हम बाकी क्यों बचने दें ? कलंकी अवतार घोड़े पर सवार है, हाथ में तलवार लिये है और म्लेच्छों का संहार कर रहा है । इसी स्वरूपमें हम शिवाजी का भी चित्र देखते हैं तब क्यों न मान लें कि, शिवाजीके साथ ही सब अवतार समाप्त हो गये हैं और अब हमें अपने उत्कर्ष के मार्ग पर आप ही अग्रसर होना है ? अवतारवाद बुने निर्माण किया है और सभी झब्बू अपने को ईश्वर के अवतार होने की घोषणा करते हैं । इस से उनकी तो बनाती है, किन्तु भोली-भाली जनता कारण ठगी जाती है । अतः जब कि, हमें संसार में सम्मानके साथ जीना है, तब मनमें दौर्बल्य उत्पन्न करनेवाले अवतारवादको भी पूर्वोक्त दो ऋषियोंके साथ हिमालयकी गहरी गुहा में बन्द कर देना नितान्त श्राव श्यक है। ईश्वर न कहीं जाता है, और न थाता है। और वह सर्वव्यापक है, प्राणिमात्रके अन्तःकरणमें स्थित है और चैतन्यरूपसे सर्वत्र व्याप्त है । उनके श्रानेकी अवतरित होनेकी -- बाट जोहना मूर्खता है। मनुष्यको अपना उद्धार आप ही कर लेना होगा । "उद्धरेदत्म नात्मानम्” यही गीताका उपदेश है ।