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. अनेकान्त
[मार्गशीर्ष, वीर-निर्वाण सं०२४१६
टीकाकार, ६ धवलाकारके सन्मुख उपस्थित साहित्य, छपाई-सफाई भी उत्तम है । मूल्य भी परिश्रमादिको १०षट् खण्डागमका परिचय, ११ सत्प्ररूपणाका विषय, देखते हुए अधिक नहीं है। और इसलिये यह ग्रंथ १२ ग्रन्थकी भाषा, इतने विषयों पर प्रकाश डाला गया विद्वानों के पढ़ने, मनन करने तथा हर तरहसे संग्रह है । प्रस्तावना बहुत अच्छी है और परिश्रमके साथ करनेके योग्य है । इसकी तय्यारीमें जो परिश्रम हुआ है लिखी गई है । हाँ, कहीं-कहीं पर कुछ बातें विचारणीय उसके लिये प्रोफेसर साहब और • उनके दोनों सहायक तथा आपत्तिके योग्य भी जान पड़ती हैं, जिन पर फिर शास्त्रीजी धन्यवादके पात्र हैं और विशेष धन्यवाद के कभी अवकाशके समय प्रकाश डाला जा सकेगा । यहां पात्र भेलसाके श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द जी हैं, जिनके पर एक बात ज़रूर प्रकट कर देनेकी है और वह यह आर्थिक सहयोग के बिना यह सब कुछ भी न हो पाता, कि प्रस्तावनामें 'धवला' को वर्गणा खण्डकी टीका भी और जिन्होंने 'जैन साहित्योद्धारक फंड' स्थापित करके बतलाया गया है । परन्तु मेरे उस लेखकी युक्तियों पर समाज पर बहुत बड़ा उपकार किया है । कोई विचार नहीं किया गया जो 'जैन सिद्धान्त भास्कर' अन्तमें श्री गजपति उपाध्यायको, जो मोडबद्रीके के ६ ठे मागकी पहली किरणमें 'क्या यह सचमुच- सुदृढ़ कैदखानेसे चिरकालके बन्दी धवल-जयधवल ग्रंथभ्रम निवारण है ? इस शीर्षकके साथ प्रकाशित हो राजोंको अपने बुद्धिकौशलसे छुड़ाकर बाहर लाये तथा चुका है और जिन पर विचार करना उचित एवं श्राव- सहारनपुरके रईस ला• जम्बूप्रसादजीको सुपुर्द किया, श्यक था । यदि उन युक्तियों पर विचार करके प्रकृत और श्री सीताराम जी शास्त्रीको, जिन्होंने अपनी निष्कर्ष निकाला गया होता तो वह विशेष गौरवकी दूरदृष्टिता एवं हस्तकौशलसे उक्त ग्रंथराजोंकी शीघ्रातिवस्तु होता । इस समय वह पं० पन्नालालजी सोनीके शीघ्र प्रतिलिपियाँ करके उन्हें दूसरे स्थानों पर पहुंचाया कथनका अनुसरण सा जान पड़ता है, जिनके लेखके और इस तरह हमेशा के लिये बन्दी (कैदी) होनेके भयसे उत्तरमें ही मेरा उक्त लेख लिखा गया था। इस विषय- निर्मुक्त किया *, धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता। का पुनः विशेष विचार अनेकान्तके गत विशेषांकमें ये दोनों महानुभाव सबसे अधिक धन्यवादके पात्र हैं। दिए हुए 'धवलादि श्रुत-परिचय' नामक लेखमें वर्गणा- इन लोगोंके मूल परिश्रम पर ही प्रकाशनादिकी यह सब खण्ड-विचार' नामक उपशीर्षकके नीचे किया गया है। भव्य इमारत खड़ी हो सकी है और अनेक सजनोंको उस परसे पाठक यह जान सकते हैं कि उन युक्तियोंका ग्रन्थके उद्धारकार्य में सहयोग देनेका अवसर मिल सका समाधान किये बगैर यह समुचित रूपसे नहीं कहा जा है। यदि वह न हुआ होता तो आज हमें इस रूपमें सकता कि धवला टीका षट् खण्डागमके प्रथम चार ग्रन्थराजका दर्शन भी न हो पाता । खेद है इन परोपखण्डोंकी टीका न होकर वर्गणाखण्ड सहित पांच खंडों- कारी महानुभावोंके कोई भी चित्र ग्रन्थमें नहीं दिये गये की ठीका है।
हैं । मेरी रायमें ग्रन्योद्धार में सहायकोंके जहाँ चित्र दिये . इस प्रकारकी कुछ त्रुटियोंके होते हुए भी ग्रंथका
* यदि श्री सीतारामजी शास्त्री ऐसा न करते तो यह संस्करण हिन्दी अनुवाद, टिप्पणियों, प्रस्तावना और इन ग्रन्थराजोंकी सहारनपुरमें भी प्रायः वही हालत परिशिष्टोंके कारण बहुत उपयोगी हो गया है। होती जो मूडबद्रीके कैदखानेमें हो रही थी।