Book Title: Anekant 1939 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 43
________________ श्वेताम्बर न्यायसाहित्यपर एक दृष्टि वर्ष ३, किरण २ ] करते गौणता प्रदान करने पर ही वस्तु तत्त्वका हुए निर्णय हो सकता है ॥४॥ स्याद्वाद सिद्धान्त परमागमका बीज है, इसने जन्मान्ध-गज-न्याय के समान एकान्तवाद रूप मिथ्याधारणाका सर्वथा नाश कर दिया है । यह वस्तुमें संनिहित अनन्त धर्मोंको अपेक्षा करता हुआ, विरोधोंको विविधता के रूपमें समन्वय करनेवाला है । ऐसे सिद्धान्त शिरोमणि "अनेकान्तवाद" को मैं नत बार नमस्कार करता हूँ ||५|| इसलिये स्याद्वादको संशयवाद या अनिश्चयवाद कहना निरी मूर्खता है । स्याद्वाद सर्वानुभवसिद्ध, सुव्यवस्थित, सुनिश्चित, और सर्वथा निर्दोष सिद्धान्त है । संपूर्ण धार्मिक क्लेशों को दूर करनेके लिये, सभी मनमतान्तरोंका समन्वय करके उनको एक ही प्लेट फार्म पर लाने के लिये, एवं विश्व के बिखरे हुए और विरोधी रूपसे प्रतीत होनेवाले लेखों विचारों तथा हजारों संप्रदायों को एक ही सूत्रमें अनुस्यूत करनेके लिये स्याद्वाद - जैसा कोई दूसरा श्रेष्ठ सिद्धान्त है ही नहीं । विश्वकी सभ्यत, संस्कृति और शांति के विकासके लिये जैनदर्शन और जैनतर्क शास्त्रकी यह एक महान् देन है । किन्तु खेद हैं कि आजका जैनसमाज अनेक संप्रदायोंमें विभाजित होकरके रत्न जैसे सुन्दर सिद्धान्तोंकी शीशे के टुकड़ों के रूप में परिणत करता हुआ भगवान् महावीर स्वामी के नामपर विश्वासघात कर रहा है ! अर्थात् अनेकान्तवादी स्वयं सांप्रदायिक व्यामोहसे एकान्तवादी हो गया है !! 3 प्रमाण और नय पर ऐतिहासिक दृष्टि यह पहले लिखा जा चुका है कि प्रमाण और नय का समन्वय ही स्याद्वाद सिद्धान्त है; अतः इस विषय पर भी एक सरसरी ऐतिहासिक दृष्टि डालना आवश्यक १८१ है । स्वपर-निश्चायक ज्ञान ही प्रमाण है । जैन वाङ्मय - में ज्ञान दर्शनकी दो पद्धतियाँ उपलब्ध । एक आागमिक और दूसरी तार्किक । श्रागमिक पद्धतिके भी दो रूप मिलते हैं । एक तो विशुद्ध - श्रागमिक और दूसरी तर्कांश मिश्रित - श्रागमिक । विशुद्ध श्रागमिक ज्ञान निरुपण पद्धति में ज्ञान के पाँच भेद किये गये हैं । मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यय और केवल । इनको आागमिक कहनेका कारण यह है कि आत्माकी मूलभूत शुद्धि और अशुद्धि के विवेचन में जो 'कर्मसिद्धान्त' का वर्णन किया जाता है, उसमें ज्ञानावरण कर्मके पाँच ज्ञान-भेद के अनुसार किये गये हैं। तर्क - संर्घषरण से उत्पन्न प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्षरूप भेदोंके श्राधारसे प्रत्यक्षावरण और परोक्षावरणरूपभेद ज्ञानावर्ण कर्मके नहीं किये गये हैं । यदि ज्ञानावर्ण के भेद प्रत्यक्षावर्ण और परोक्षावर्ण के रूपमें किये जाते तो यह तर्कप्रधान ज्ञानविवेचन प्रणाली कहलाती । किन्तु ऐसा न होने से यह श्रुतिविशुद्ध और प्राचीन ग्रागमिक ज्ञान प्रणाली है । तर्कमिश्रित श्रागमिक ज्ञान पद्धति में ज्ञान रूप प्रमाणके ४ विभाग किये गये हैं । १ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान, और ४ श्रागम । तदनुसार विशुद्ध श्रागमिक ज्ञान पद्धतिके भेदोंका समावेश प्रत्यक्ष में समफना चाहिये और शेष भेद तर्क-संघर्ष से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा समझना चाहिये । श्री ठाणांग सूत्रमें "प्रत्यक्ष और परोक्ष" तथा " प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम” इस प्रकार दोनों भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है । इसमें प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद वाली प्रणाली तो स्पष्ट रूपसे विशुद्ध तार्किक ही है । श्री भगवती सूत्रमें केवल चार भेद वाली प्रणालीका उल्लेख पाया जाता है । श्री अनुयोग द्वारा सूत्रमें चार भेद वाली प्रणालीका उल्लेख किया जाकर प्रत्यक्ष दो

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