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अनेकान्त
मणुवे ओघ थावर तिरियादावदुगएयवियलिंदी | साहरणदरा उतिथं वेगुव्वियछक्क परिहीणो ||२८||
अर्थात् सब मनुष्यों में उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में स्थावर, तिथंच गति, श्रातप श्रादि २० प्रकृतियाँ कम करनेसे १०२ का उदय है। इनमें नीचगोत्र कम नहीं किया, अतः मनुष्योंमें नीचगोत्रका उदय है । मिच्छमपण्णं छेदो अणमिस्स मिच्छुगादितिसु अयदे विदियकसारण दुब्भगऽणादेज्जज्जय || २९९
अर्थात – उन मनुष्यों में मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानियोंके मिथ्यास्व, अपर्याप्त, अनंतानुबंधीकी ४ चौकड़ी आदि प्रकृतियोंकी उदय व्युच्छित्ति होती है। तीसरे गुणस्थान तक नीचगोत्रकी उदय व्युच्छित्ति नहीं हुई, अतः उसका उदय है ।
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं०२४६६
अपने लेख में उसे किस प्रकार अस्वीकार किया, यह बात समझानी चाहिये अथवा मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय स्वीकार करना चाहिये । श्रनुभवमें तो नीच व उच्च दोनों गोत्रों के भाव एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्री देव मनुष्य नारकी व तिर्यच तक सब जीवोंके अपने प्रत्येक सदा चरण व दुराचरणके साथ साथ प्रति समय प्राते रहते हैं और गोम्मटसारकी १३ वीं गाथा के अनुसार सारे संसारके जीवोंपर नीच व ऊँच दोनों गोत्र जीवों के सदाचरण व दुराचरणके आधार पर घटित भी होते हैं । तथा नीचगोत्र से ऊंचगोत्रका और ऊँचगोत्रसे नीचगोत्रका अपने सदाचरणोंसे व दुराचरणोंसे संक्रमण भी होजाता है, ऐसा मैंने कभी जैनमित्रमें पढ़ा है। इसलिये मान, प्रतिष्ठा, राज्य, लक्ष्मी आदिके कारण किसी दुराचारीको जन्म भरके लिये उच्चगोत्री और दरिद्रता, नीची श्राजीविका शादिके कारण किसी सदाचारी धर्मात्माको जन्म भरके लिये नीचगोत्री मान बैठना सरासर अन्याय व पाप बंधका कारण जान पड़ता है।
देस तदियकसाया णीचं एमेव मरणुमसामरणं । पज्जत्ते वय इत्थी वेदाऽवज्जतिपरिहरणो ||३००|| . अर्थात् - पाँचवें गुणस्थान में प्रत्याख्यानी चौकड़ी व etariant उदय व्युच्छित्ति होती है और पर्याप्त मनुयों में पहली १०२ में स्त्री वेद व अपर्याप्त कम करने से २०० का उदय है । इस प्रकार पंचम गुणस्थान में नीच गोत्रकी व्युच्छित्ति हुई है, अतः यहां तक पर्याप्त मनुष्य के नीचगोत्रका उदय पाया जाता है ।
मिथिसहिदा तित्थयराहारपुरिससंदूर पुणिदरेव पुणे सगाणुगदिश्राउगं यं ||३०१
अर्थात् - १०० प्रकृतियों में स्त्री वेद मिलाकर उदययोग्य प्रकृतियोंमेंसे तीर्थंकर, श्राहारक युगल, पुरुष वेद, नपुंसक वेद ये पांच प्रकृतियां कम करने मे ६६ का उदय मनुष्य के हैं। यहां भी नीचगोत्र कम नहीं हुआ, अतः पर्याप्त स्त्रीके नीचगोत्रका उदय वर्तमान है ।
इस तरह पर जब मनुष्यों में नीचगोत्रका उदय सिद्धान्त में बतलाया गया है, तब पूज्य बाबू साहबने
आगे पूज्य बाबू साहबने सभी मनुष्यको उच गोत्री बतलाते हुए लिखा है कि:-गोम्मटसार कर्मकाण्ड की गाथा १८ में साफतौर से बतलाया है कि नीच ऊँच गोत्र भवोंके अर्थात् गतियोंके आश्रित है और जिससे यह ध्वनित किया है कि नरक-भव तिर्यच भवके सब जीव नीचगोत्री और देवभव व मनुष्यभव वाले सब उच्चगोत्री हैं । उस गाथाका वह अंश इस प्रकार है:
भव सस्सिय णीचुच्चं इदि गोदं ॥
इस गाथा वाक्यका तो 'नीच ऊँचगोत्र गतियोंके श्राश्रित है' यह अर्थ नहीं लिखा है बल्कि यह अर्थ लिखा है कि 'नीचता व ऊँचता भवके श्राश्रित है। "इदि गोद " ये शब्द गाथा के तीसरे चरण के न होकर चौथे चरण के हैं, अतः “भवमस्सिय गोचुचं" इस पदके भावसे