________________
१६८
श्रनेकान्त
अत्यन्त पापोदयकी अपेक्षा से है और केवल मनुष्यों के माननेकी वस्तु है, मनुष्य यह अनुभव करें कि नारकी हमसे नीचे हैं ऐसा मानना चाहिये ।
[ मार्गशीर्ष, वीर निर्वाण सं० २४६६
त्रिक देव भी यथाशक्ति धर्म-साधन करते हैं तथा सम्यक्त भी ग्रहण कर लेते हैं। यह सब उनके धर्माचरण ही हैं और इसलिये उनमें उच्च गोत्र भो होना ही चाहिये ।
जैनशास्त्रों में पद पद पर यह कथन मिलता है कि शास्त्रों में जो भी बातें कहीं हैं जो म विवेचन किया गया है, वह निरपेक्ष न कहा जाकर किसी न किसी अपेक्षा ही कहा हुआ होता है, भने ही वहाँ उस पेक्षाका स्पष्टीकरण या प्रकटीकरण न किया गया हो । जहाँ जो बात कही गई हो उसे निरपेक्ष न समझ कर जिस अपेक्षा से कही गई हो उसी अपेक्षासे समझने पर ठीक समझी गई ऐसा कहा जा सकता है, बल्कि निर पेक्ष कही हुई व समझी हुई बात 'मिथ्या तक कह दी जाती है । जब यह बात है तब मेरी कही हुई यह बात कि विशिष्ट पुण्योदयकी अपेक्षा सारे देवों में उच्च गोत्रका उदय व विशिष्ट पापोदयको अपेक्षा तिर्यच व नारकियों में नीच गोत्रका उदय माना है, क्यों नहीं ठीक मानी जानी चाहिये ? और यदि मेरी उपर्युक्त ठीक है तो गोम्मटसार कर्मकाण्डकी १३वीं गाथा में ऊँचे व नीचे श्राचरण के आधार पर वर्णित ऊँच नीच गोत्रके स्वरूपकी संगति सारे संसार के प्राणियों पर ठीक बैठ जाती है, और यहाँ ११वीं गाथासे प्रकरण भी सारे संसारके प्राणियोंका आरहा है, इसलिये भी १३वीं गाथा में वर्णित ऊँच-नीच गोत्रका स्वरूप देव मनुष्य तियंच व नारकी रूप सारे संसार के जीवोंके लिये ही वर्णित है । और वह इस तरह पर घटित होता है---
कल्पवासी, भवनवासी, व्यंतर व ज्योतिषी देवोंके धर्माचरणों के विषय में तो पहले लिखा ही जा चुका है कि धर्माचरण उनमें पाये जाते हैं और पापाचरणों तथा उनमें ऊँचे नीचे और छोटे-बड़े भेद-प्रभेदों के विषयपूज्य वकील बाबू सूरजभानजी साहबने अपने लेखमें..
देवोंको ऊँच गोत्र वाले मानना और तियंचों व नारकियोंको नीच गोत्र वाले मानना मनुष्योंके मानने की वस्तु इसलिये है कि देवोंको अपने ऊँचे व अपनेको देवोंसे नीचे तथा तियंचों, नारकियोंको अपनेसे नीचे व अपनेको तियंच नारकियोंसे ऊँचे माननेसे जो तज्जन्य रसानुभव होता है वह मनुष्योंको ही होता है; क्योंकि मनुष्य ही ऐसा मानते हैं । और इसलिये भी उपर्युक्त प्रकारका मानना मनुष्यों के माननेकी वस्तु है । मनुष्यों द्वारा जो देव ऊँचे व तिच नारकी नीचे माने जाते हैं उसका रसानुभव देव तिर्यंच नारकियों को कुछ भी नहीं होता ।
सर्व प्रकार के देव व भोग भूमियाँ जाव अणुमात्र भी चारित्र धारण नहीं कर सकते, इसका भाव यह मानना चाहिये कि वे संप्राप्त भोगोंका त्याग करके और जो कुछ भी चारित्र धर्माचरण पालने के अभ्यासी हैं उससे बढ़ नहीं सकते अणुमात्र चारित्र धारण नहीं कर सकनेसे यह प्रयोजन न समझना चाहिये कि उनमें चारित्रका, धर्माचरणों का अभाव हो है । भोगभूमियां जीव अत्यन्त मंद कषाय होते हैं और इसलिये देव ही उत्पन्न होते हैं तथा वे सम्यक्त भी ग्रहण करते हैं, धर्म चर्चादि भी करते हैं और इसी तरह सर्वार्थसिद्धि श्रादि अनुत्तर विमानोंके देव एक भवावतारी व दो भवावतारी होते हैं तथा सदैव धर्म चर्चा व पूजा प्रभावनादि धर्माचरण किया करते तथा पंचम स्वर्गके देव ब्रह्मचारी देव ऋषि होते हैं। सौधर्मादि स्वर्गोंके देव भी भगवान्के - कल्याणकादिमें व समवसरणादिमें श्राते हैं तथा पूजा प्रभावनाधर्म चर्चादि किया करते हैं । इसी तरह भवन