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वर्ष ३. किरण २ ]
चरण भी एक ही बात है ।
मैं यहाँ प्रश्न करता हूँ कि ऊँच गोत्र सूचक ऊँचे श्रचरणका अर्थ व्यवहारयोग्य सभ्य कुलाचरण व संयम धर्माचरण दोनों ही प्रकारका आचरण किया जावे तथा नीच गोत्र सूचक नीचे आचरणका अर्थ ठगडकेतों के असभ्य कुलका आचरण व श्रसंयमाचरण दोनों ही प्रकारका श्राचरण किया जावे और व्यवहारयोग्य सभ्य कुलाचरण तथा धर्माचरण में और ठगshती सभ्य कुलाचरण में और असंयमाचरण में भेद व्यक्त न किया जावें तो क्या हानि है ?
ऊँच नीच गोत्र विषयक चर्चा
यह
urगे चलकर श्रीपूज्यपादस्वामीकृत सर्वार्थसिद्धिमें वर्णित ऊँचगोत्र और नीचगोत्रका स्वरूप बतलाया है कि 'लोक पूजित कुलों में जन्म होनेको ॐच गोत्र व गर्हित कुलों में जन्म होनेको नीचगोत्र कहते हैं।'
यहाँ पर लोकपूजित कुल व गर्हित कुलका स्वरूप विचारना चाहिये । ओ कुल अपने हिंसा झूठ-चोरी आदि पापोंके त्यागरूप श्रहिंसा सत्य - शील-संयम दान श्रदि धर्माचरणों के धारणरूप श्राचरणोंके कारण पज्य हैं— सन्मानित हैं — प्रतिष्ठा प्राप्त हैं वे ही कुल लोकपूजित कुल माने जाने चाहियें- - राज्य-धन सैन्य बल आदि का पूजित कुल लोक पूजित नहीं माने जाने चाहियें। जो कुल हिंसा झट-चोरी श्रादि पापाचरणोंके कारण गर्हित हैं वे गर्हित कुल माने जाने चाहियें । और इस तरह पर धर्माचरणोंके कारण लोकों द्वारा पूजित कुलमें जन्म लेनेवालेको 'ऊँचगोत्री' व पापाचरणोंसे गर्हित कुलमें जन्म लेनेवालेको नीच-गोत्री मानना चाहिये, और ऐसा माननेसे गोम्मटसास्की १३ वीं गाथा में वर्णित ऊँच-नीच गोत्रके स्वरूप में और श्री पूज्यपादस्वामीरचित सर्वार्थसिद्धि में वर्णित ऊँच
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नीच - गोत्र स्वरूपमें कोई विरोध प्रतिभासित नहीं होगा। क्या नेरा यह कहना ठीक है ? अथवा उक्त प्रकार से मानने पर जैनसिद्धान्तसे क्या कोई विरोध नहीं आएगा ।
आगे लिखा है कि सब ही देव (कल्पवासी आदि धर्मात्मा व भवनवासी आदि पापामारी देव) और भोग भूमियाँ जीव - चाहे वे सम्यकष्टि हों या मिथ्यादृष्टि - जो श्रणु मात्र भी चारित्र ग्रहण नहीं कर सकते वे तो उच्च गोत्री हैं और देशचारित्र धारण कर सकने वाले पंचम गुणस्थानी संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच नीच गोत्री ही हैं ।'
श्री वीर भगवान् ने अपने शासनमें विरोध रूप शत्रुको नष्ट करनेके लिये अनेकान्त अपना अपेक्षावाद वा स्याद्वाद जैसे गंभीर सिद्धान्त - श्रमोघा का निर्माण किया है, फिर जहाँ हमें कुछ विरोध प्रतिभासित हो वहाँ हम अनेकान्तसे विरोधका क्यों न समन्वय कर लें क्यों न अपेक्षावादका उपयोग करें ? और वह समन्वय इस प्रकार से कर लिया जावे तो क्या कोई जैनसिद्धान्त से विरोध आवेगा ? -
कल्पवासी देवों और भवनत्रिक देवों में जो उच्चगोत्रका उदय बतलाया है वह उनके शक्तिशाली पनेकी अपेक्षा व विशिष्ट पुण्योदपको अपेक्षा से है और वह भी केवल मनुष्यों के माननेके लिये है अर्थात् मनुष्य ऐसा मानें कि देव हमसे ऊँचे हैं, ऐसा मानना चाहिये । और इसी प्रकार तियंचों में जो नीच गोत्रका उदय बतलाया है वह उनके पशुपने व विशिष्ट प पोदयकी अपेक्षा है, और वह भी केवल मनुष्यों के माननेकी अपेक्षाले है अर्थात् मनुष्य ऐसा मानें कि तिर्यंच हमसे नीचे हैं, ऐसा मानना चाहिये। इसी तरह नारकियों में भी जो नीच गोत्रका उदय बतलाया है वह भी उनके