Book Title: Anekant 1939 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 25
________________ वर्ष ३. किरण २] अहिंसाकी कुछ पहेलियाँ कभी बच्चोंको पीट भी देता हो, जिसकी किसीके साथ विचार जिसके मनमें आते रहते हैं और जो उस बात बोलचाल भी हो जाती हो, ऐसा शख्स क्या यह कह को भूल ही नहीं सकता; बल्कि बदला लेनेके मौके सकता है कि उसकी अहिंसाधर्ममें श्रद्धा है ? ही ढूँढता है, और उस आदमीका कुछ अनिष्ट हो उत्तर-हम इस वक्त जिस प्रकारकी और जिस तब खुश होता है, उसके दिल में हिंसा, द्वेष या वैरकी क्षेत्रकी अहिंसाका विचार कर रहे हैं उसमें "गुस्सेके वृत्ति है । क्रोध भी श्राये शोक भी हो, फिर भी, अगर मानीमें क्रोध" और "द्वेष, वैर, जहरके मानीमें क्रोध" मन में ऐसे भाव न उठ सकें तो वह अहिंसा है। नुक्कका भेद समझना ज़रूरी है। माँ-बाप, शिक्षक श्रादि सान करने वालेका बुरा न चाहनेकी शुभवृत्ति जिसके कभी-कभी बच्चों पर गुस्सा करते हैं और सज़ा भी दिल में है वह प्रसंगवशात् क्रोधवश होता हो, तो भी वह देते हैं । रास्ते पर, पानीके नल या कुएँ पर कभी-कभी अहिंसाधर्मका उम्मीदवार हो सकता है। यह एक स्त्रियोंमें बोलचाल हो जाती है। पड़ोसियोंमें एकका दूसरी बात है कि जितनी हदतक वह अपने गुस्सेको कचरा दूसरेके घरमें उड़ने जैसी छोटी-सी बात पर भी रोकना सीखेगा उतना ही वह अहिंसामें ज्यादा शक्ति झगड़ा हो जाता है । बुढ़ापे या बीमारीमें अनेक लोग हासिल करेगा। तात्विक दृष्टि से कह सकते हैं कि इस बदमिज़ा न हो जाते हैं और छोटी छोटी बातोंसे चिढ़ते चिढ़के क्रोध' और 'वैर के क्रोध' में सिर्फ मात्राका ही हैं । यह मन्त्र क्रोध ही है और दुर्गुण भी, इतने परसे भेद है । फिर भी यह भेद उतना ही बड़ा और महत्व हम इन लोगोंको द्वेषी, ज़हरीले, या वैरवृत्तिवाले नहीं का है जितना कि नहानेका गरम पानी और उबलते कहेंगे । उलटे, कई बार यह भी पाया जायगा हुए गरम पानीका है। कि खुले दिल के और सरल स्वभावके लोगोंमें ही इस (३) प्रश्न-बहस या भाषणोंमें प्रतिपक्षीका मज़ाक प्रकारका क्रोध ज्यादा होता है और कपटी आदमी ज्यादा उड़ाने, बाग्वाण चलाने या तिरस्कारकी भाषा इस्तेमाल संयम बताते हैं । इसप्रकारका गुस्सा जिसके प्रति प्रेम करनेमें जो अहिंसा का भंग होता है वह किस हद तक और मित्रभाव हो, उसपर भी होता है । बल्कि उमी पर निर्दोष माना जाये ? ज्यादा जल्दी होता है; पराये आदमी पर कम होता है। उत्तर-मान लीजिए कि हिंसाका सादा अर्थ है यह स्वभाव, शिक्षा, संस्कार वगैरहकी कमीका परिणाम घाव करना । जो प्रहार दूसरेको घाबके जैसा मालूम है; लेकिन द्वेषवृत्तिका नहीं ! अहिंसा-धर्ममें प्रगति करने होता है, वह हिंसाहै; फिर वह हाथ-पैर या शस्त्रसे उसके एक आदरपात्र सेवक और अगुवा बननके लिए किया हो, शब्दसे किया हो, याकि दिलसे छिपी हुई यह त्रुटि ज़रूर दूर होनी चाहिये। ऐसा नहीं कि ऐसी बददुश्रा ही हो । स्थूल घाव जब सीधी छुरीका होता है पटि होने के कारण कोई आदमी अहिंसाधर्मका सिपाही तो कम ईज़ा देता है। टेढ़ी बरछीका हो तो बदनका भी नहीं हो सकता । अहिंसाके लिए जो वस्तु महत्वकी ज़्यादा ज़्यादा हिस्सा चीर डालता है। तकलीकी तरह है वह है अद्वेष या अवैर-वृत्ति । जब किसीने कुछ नुकीला शस्त्र हो तो उसका घाव और भी ज्यादा खतरमुकसान या अपमान किया हो तब उसका बदला किस नाक होता है । उसी तरह शब्दोंका घाव सीधा हो तो वरह लें, उसे नुकसान किस तरह पहुँचायें, वगैरह जितनी ईजा देता है, उससे बाह्य दृष्टिसे विनोदात्मक

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