Book Title: Agam Sutra Satik 43 Uttaradhyayanani MoolSutra 4
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 628
________________ २३७ अध्ययन-३४,[ नि.५४९] ग्रामो दग्धः पटो दग्ध इति, ततश्चान्तर्मुहूर्ताधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितितिव्या कृष्णलेश्यायाः, इह चान्तर्मुहूर्तस्यासङ्ख्येभेदत्वादन्तर्मुहर्तशब्देन पूर्वोत्तरभवसम्बन्ध्यन्तर्मुहर्त्तद्वयमुक्तं द्रष्टव्यमेवमुत्तरत्रापि। ___ मुहूर्तार्द्धस्तु जघन्या 'देशे'ति दशशङ्ख्यानि उदधय इत्युक्तन्यायेनोदध्युपमानि कोsर्थ:?-सागरोपमाणि 'पलिय'त्ति तथैव पल्योपमं तस्यासङ्ख्यभागस्तेनाधिकानि पल्योपमा सङ्ख्येयभागाधिकान्युत्कृष्टा भवति स्थितिर्जातव्या नीललेश्यायाः, नन्वस्या धूम्रप्रभोपरितनप्रस्तटएव सम्भवः तत्र च 'अंतोमुहुत्तमि गए" त्यादिवक्ष्यमाणन्यायत: पूर्वोत्तरभवान्तर्मुहूर्तद्वयपल्योपमासङ्ख्येयभागाभ्यधिकदशसागरोपमपरिमाणैवासौ किं नोक्ता?, उच्यते, उक्तैव, पल्योपमासङ्ख्येयभाग एव तस्याप्यन्तमुहूर्तद्वयस्यान्तर्भावात्, तदसङ्ख्येय-भागानां चासख्येयभेदत्वादिहैतावत्परिमाणस्यैवास्य विवक्षितत्वान्न विरोधः, एवमुत्तरत्रापि भावनीयम्। अक्षरसंस्कारस्तूत्तरेषु कृत एव, नवरं त्रय उदधयः सागरोपमाणि द्वावुदधी-द्वे सागरोपमे, दशोदधयो-दश सागरोपमाणि, 'तेत्तीसं'ति त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, पठन्ति च सर्वत्र 'मुहुतद्दा उत्ति, तत्र मुहूर्त(ध) शब्देन प्राग्वदन्तर्मुहूर्तस्योक्तत्वादन्तर्मुहूर्तकालमिति सूत्रषट्कार्थः ।। सम्प्रति प्रकृतमुपसंहरनुत्तरग्रन्थसम्बन्धमाहमू.(१४२२) एसा खलु लेसाणं आहेण ठिई उ वनिया होइ। चउसुवि गईसु इत्तो लेसाण टिई उ वुच्छामि। वृ. स्पष्टमेव, नवरम् ‘ओधेन' इति सामान्येन गतिभेदाविवक्षयेतियावत्, 'चतसृष्वपि गतिषु' नरकगत्यादिषु प्रत्येकमिति शेषः, अतः' इत्योधस्थितिवर्णनानन्तरमिति सूत्रार्थः । मू.(१४२३) दसवाससहस्साइं काउइ ठिई जहनिया होइ। तिनोदही पलिय असंखेज्जभागंच उक्कोसा।। मू.(१४२४) तिनुदहीपलिओवममसंखभागो जहन्ननीलठिई। दसउदहीपलिओवममसंखभागं च उक्कोसा।। मू.(१४२५) दसउदहीपलिओवममसंखभागं जहन्निया होइ। तित्तीससागराइं उक्कोसा होइ किण्हाए। मू.(१४२६) एसा नेरईयाणं लेसाण ठिई उवनिया होइ। तेन परंवुच्छामि तिरियमनुस्साण देवाणं। मू.(१४२७) अंतोमुहुत्तमद्धं लेसाण ठिई तहि तहिं जा उ। तिरियाण नराणं वा वज्जिता केवलं लेसं। मू.(१४२८) मुहत्तद्धं तु जहन्ना उक्कोसा होइ पुव्वकोडी उ। नवहिं वरिसेहिं ऊणा नायव्वा सुक्कलेसाए। मू.(१४२९) एसा तिरियनराण लेसाण ठिई उ वन्निया होई। तेन परंवुच्छामि लेसाण ठिई उ देवाणं॥ मू.(१४३०) दसवाससहस्साइं किण्हाए ठिई जहनिया होइ। पलियमसंखिज्जइमो उक्कोसो होइ किण्हाए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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