Book Title: Agam Sutra Satik 43 Uttaradhyayanani MoolSutra 4
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Shrut Prakashan

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Page 634
________________ २४३ अध्ययनं-३५,[ नि. ५५१] मू. (१४४६) तहेव हिंसं अलियं, चोज्ज अब्बभसेवणं । इच्छकामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए। म.(१४४७) मनोहरं चित्तधरं, मल्लधूवनवासियं । सकवाडं पंडरुल्लोयं, मनसावि न पत्थए । मू. (१४४८) इंदियाणि उभिक्खुस्स, तारिसंमि उवस्सए। दुकराई [तु धारेउं] निवारेउं, कामरागविवड्डणे ।। मू.(१४४९) सुसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूले व इक्कओ। पइरिके परकडे वा, वासं तत्थऽभिरोयए। मू.(१४५०) फासुयंमि अनाबाहे, इत्थीहिं अनभिद्दए। तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परमसंजए। मू.(१४५१) न सयं गिहाइंकुचिज्जा, नेव अन्नेहि कारए। गिहकम्मसमारंभे, भूयाणं दिस्सए वहो।। मू.(१४५२) तसाणं थावराणं च, सुहुमाणं बायराण य । तम्हा गिहसमारंभं, संजओ परिवज्जए। मू.(१४५३) तहेव भत्तपानेसु, पयणे पयावणेसु य । पाणभूयदयट्ठाए. न पए न पयावए । मू.(१४५४) जलधननिस्सिया जीवा, पुढवीकट्ठनिस्सिया। हम्मति भत्तपानेसु, तम्हा भिक्खू न पयावए । मू. (१४५५) विसप्पे सव्वओ धारे, बहुपाणविनासणे। नत्थि जोइसमे सत्थे, तम्हा जोई नदीवए।। मू.(१४५६) हिरन्नं च जायरूवं च, मनसाविन पत्थए। समलिङ्गकंचणं भिक्ख, विरए कयविक्कए। मू.(१४५७) किणंतो कइओ होइ, विकिणंतो अवाणिओ। कयविक्कयमि वलुतो, भिक्खू हवइ तारिसो।। म.(१४५८) भिक्खियव्यं न केयव्वं, भिक्खुणा भिक्खवित्तिणा। कयविक्कओ महादोसो, भिक्खवित्ती सुहावहा ।। मू. (१४५९) समुयाणं उंछमेसिज्जा, जहासुत्तमणिदियं। लाभालाभंमि संतुठे, पिंडवायं मुनी।। मू.( १४६०) अलोलो न रसे गिद्धो, जिन्भादतो अमुच्छिओ। न रसहाए भुजिज्जा, जवणट्ठाए महामुनी। मू.(१४६१) अच्चणं रयणं चेव, वंदनं पूअणं तहा। इड्डीसक्कारसम्माणं, मनसाविन पत्थए। म.(१४६२) सुकं झाणं झियाइज्जा, अनियाणे अकिंचणे। वोसढकाए विहरिज्जा, जाव कालस्स पज्जओ।। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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