Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Jaykirtisuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

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Page 291
________________ ५७६ श्रीउत्तराध्ययनदीपिकाटीका-२ एगूणवन्नहोरत्ता, उक्कोसेण वियाहिया । तेइंदियआउठिइ, अंतोमुहत्तं जहन्निया ॥१४१॥ व्याख्या-त्रीन्द्रियजीवानामुत्कृष्टायुःस्थितिरेकोनपञ्चाशद्दिनानि व्याख्याता, जघन्या चान्तर्मुहूर्तम् ॥१४१।। संखिज्जकालमुक्कोसं, अंतोमुहत्तं जहन्नियं । तेइंदियकायठिइ, तं कायं तु अमुंचओ ॥१४२॥ व्याख्या-त्रीन्द्रियाणां स्वकायममुञ्चतामुत्कृष्टाऽसङ्ख्येयकालं स्थितिः, जघन्या चान्तर्मुहूर्तं स्थितिः ॥१४२॥ अणंतकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । तेइंदियजीवाणं, अंतरं तु वियाहियं ॥१४३॥ व्याख्या-त्रीन्द्रियजीवानामुत्कृष्टमन्तरमनन्तकालं, जघन्यं चान्तर्मुहूर्त व्याख्यातम् ।।१४३।। एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणदेसओ वा वि, विहाणाइं सहस्ससो ॥१४४॥ व्याख्या-एतेषां त्रीन्द्रियाणां वर्णतो गन्धतो रसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतश्चापि सहस्त्रशो भेदाः सन्ति ।।१४४॥ अथ चतुरिन्द्रियानाह चउरिदिया उ जे जीवा, दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥१४५॥ व्याख्या-चतुरिन्द्रियाश्च ये जीवाः सन्ति, ते द्विविधाः प्रकीर्तिताः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च, तेषां भेदान् 'मे' कथयतः शृणुत ! ॥१४५।। अंधिया पोत्तिया चेव, मच्छिया मसगा तहा । भमरे कीडपयंगे य, ढिंकुणे कुंकणे तहा ॥१४६॥ व्याख्या-अन्धिकाः, पौत्तिकाः, मक्षिकाः, तथा मशकाः भ्रमरास्तथा कीटपतङ्गाः, ढिकुणास्तथा कुङ्कणाः ॥१४६॥ Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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