Book Title: Agam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Jaykirtisuri
Publisher: Bhadrankar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 297
________________ ५८२ संतई पप्प णाइया, अपज्जवसिया वि य । ठि पडुच्च साइया, सपज्जवसिया वि य ॥१७६॥ श्रीउत्तराध्ययनदीपिकाटीका - २ व्याख्या - ते जलचराः सन्ततिं प्राप्यानादयोऽपर्यवसिताश्च, स्थितिं च प्रतीत्य सादयः सपर्यवसिताश्च सन्ति || १७६ || इक्का य पुव्वकोडी, उक्कोसेणं वियाहिया । आउठिइ जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥ १७७॥ व्याख्या-जलचराणामायुः स्थितिरुत्कृष्टा एका पूर्वकोटी व्याख्याता, चान्तर्मुहूर्तम् ॥१७७|| पुव्वकोडीपुहत्तं तु, उक्कोसेणं वियाहिया । कायठि जलयराणं, अंतोमुहुत्तं जहन्निया ॥१७८॥ व्याख्या–जलचराणां कायस्थितिरुत्कृष्टा पूर्वकोटिपृथक्त्वं व्याख्याता, जघन्या चान्तर्मुहूर्त्तं । द्वाभ्यामारभ्य नवाङ्कं यावत् पृथक्त्वसज्ञा सिद्धान्तोक्ता ज्ञेया ॥ १७८ ॥ अनंतकालमुक्कसं, अंतोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढम्म सए काए, जलयराणं तु अंतरं ॥ १७९ ॥ व्याख्या–जलचराणां स्वकीये काये त्यक्ते सति उत्कृष्टमन्तरमनन्तकालं, जघन्यं चान्तर्मुहूर्तम् ॥१७९॥ एएसिं वण्णओ चेव, गंधओ रसफासओ । संठाणादेसओ यावि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १८० ॥ व्याख्या - एतेषां जलचराणां वर्णतो गन्धतो रसतः स्पर्शतः संस्थानादेशतश्चापि सहस्रशो भेदा भवन्ति ॥ १८० ॥ स्थलचरानाह चउप्पया य परिसप्पा, दुविहा थलयरा भवे । चउप्पया चउव्विहा उ, तं मे कित्तयओ सुण ॥ १८९ ॥ जघन्या Jain Education International 2010_02 व्याख्या - स्थलचरा द्विविधा भवेयुः, चतुःपदाश्च परिसर्पाः, तत्र चतुष्पदाश्चतुर्विधाः, तान् 'मे' कथयतः शृणुत ! || १८१॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370