Book Title: Agam 42 Mool 03 Dash Vaikalik Sutra
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Shashikant Popatlal Trust Ahmedabad
________________
४०८
[श वैलि (१०3) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि।
दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-४३॥ (१०४) जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकिअं ।
दिति पडिआइवखे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-४४॥ (१०५) दगवारेण पिहिरं, नीसाए पीढएण वा ।
लोढेण वा विलेवेण, सिलेसेण व केणइ ॥१-४५।। (१०६) तं च उभिदिउं दिजा, समणट्ठा एव दावए ।
दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-४६॥ (१०७) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ।
जं जाणिज सुणिज्जा वा, दाणट्ठा पगडं इमं ॥१-४७॥ (१०८) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं ।
दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-४८॥ (१०८) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ।
जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, पुण्णट्ठा पगडं इमं ॥१-४९।। (११०) तं भवे मत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं।
दिति पडिआइकखे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-५०॥ (१११) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा।
जं जाणिज्ज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥१-५१॥ (११२) तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अप्पिअं ।
दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१-५२॥ (११७) असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा ।
जंजाणिज्ज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥१-५३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494