Book Title: Agam 42 Mool 03 Dash Vaikalik Sutra
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Shashikant Popatlal Trust Ahmedabad

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Page 485
________________ ४४८ [[ દશવૈકાલિક ચૂલિકા પહેલી (सूत्र-२१) इह खलु भो पव्वइएणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुस-पोयपडागाभूआई इमाइं अट्ठारस ठाणाई सम्मं संपडिलेहिअव्वाइं भवंति ॥ तं जहा-हंभो ! दुस्समाए दुप्पजीवी-१, लहुसगा इत्तरिआ गिहीणं कामभोगा-२, भुज्जो अ सायबहुला मणुस्सा-३, इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सइ-४, ओमजणपुरकारे५, वंतस्स य पडिआयणं-६, अहरगइवासोवसंपया-७, दुल्लहे खलु भो ! गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं-८, आयके से वहाय होइ–९, संकप्पे से वहाय होइ-१०, सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परिआए-११, बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए-१२, सावज्जे गिहवासे अणवज्जे परिआए-१३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा-१४, पत्तेअं पुण्णपावं-१५, अणिच्चे खलु भो ! मणुआण जीविए, कुसग्गजलबिंदुचंचले–१६, बहुं च खलु भो! पावं कम्मं पगडं-१७, पावाणं च खलु भो ! कडाणं कम्माणं पुचि दुच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता, १८, अट्ठारसमं पयं भवइ। (चू०१-०१)। भवइ अ इत्थ सिलोगो॥ (४८४) जया य चयइ धम्मं, अणज्जो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबुज्झइ ।चू० १-१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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