Book Title: Agam 42 Mool 03 Dash Vaikalik Sutra
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Shashikant Popatlal Trust Ahmedabad

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Page 473
________________ ૪૩ | દશ વૈકાલિક (४००) से तारिसे दुक्खसहे जिईदिए, सुरण जुत्ते अममे अचिणे । विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमि-त्ति बेमि ॥८- ६४॥ અધ્યયન સાતમુ (४०१ ) थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुसगासे विजयं न सिक्खे | सो चे उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ ॥ ९ - १ - १॥ (४०२) जे आवि मंदित्ति गुरुं वित्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवज्जमाणा, करंति आसायण ते गुरूणं ॥९-१-२॥ (४०3) पगईइ मंदा वि भवंति एगे, डहरा विअ जे सुअबुद्धोववेआ । आयारमंतो गुणसुट्ठिअप्पा, जे हीलिआ सिहिखि भास कुज्जा ॥९-१-३॥ (४०४) जे आवि नागं डहरं ति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ । एवायरिअपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो ॥९-१-४॥ (४०५) आसीविसो वा वि परं सुरुट्ठो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा ? | आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहि - आसायण नत्थि मुक्खो ॥९-१-५॥ (४०६) जो पावगं जलिअमवक्कमिज्जा, आसीविसं वा वि हु कोवइज्जा । जो वा विसं खायइ जीविअड्डी, एसोवमाssसायणया गुरूणं ॥९-१-६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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