Book Title: Agam 42 Mool 03 Dash Vaikalik Sutra
Author(s): Bhadrankarvijay
Publisher: Shashikant Popatlal Trust Ahmedabad

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Page 475
________________ ४३८ ..[श वैलि (४१५) जहा ससी कोमुइजोगजुत्तो, नक्रवत्ततारागणपरिवुडप्पा । खे सोहई विमले अब्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥९-१-१५॥ (४१६) महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगे सुअसीलबुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी ॥९-१-१६॥ (४१७) सुच्चाण मेहावि सुभासिआई, सुस्सूसए आयरिअमप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावइ सिद्धिमणुत्तरं-ति बेमि ॥९-१-१७॥ અ૦ ૯ ઉદેસે બીજે (४१८) मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति पत्ता, तओ से पुष्पं च फलं रसे अ॥९-२-१॥ (४१८) एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअंसिग्धं,नीसेसंचाभिगच्छइ ॥९-२-२॥ (४२०) जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे । वुज्झइ से अविणीअप्पा, कटं सोअगयं जहा॥९-२-३। (४२१) विणयंपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो। दिव्वं सो सिरिमिजंति, दंडेण पडिसेहए ॥९-२-४॥ (४२२) तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति दुहमेहंता, अभिओगमुवट्ठिआ ॥९-२-५॥ (४२३) तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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