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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र फिर उन घरों में भिक्षा के लिए जाए । दूसरों को भेजे या भेजनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९८
जो साधु-साध्वी अन्य तीर्थिक, गृहस्थ, 'परिहारिक' अर्थात् मूल-उत्तरगुणवाले तपस्वी या 'अपारिहारिक' अर्थात् मूल-उत्तरगुण में दोषवाले पासत्था के साथ गृहस्थ के कुल में भिक्षा लेने की बूद्धि से, भिक्षा लेने के लिए या भिक्षा लेकर प्रवेश करे या बाहर नीकले, दूसरों को वैसी प्रेरणा दे या वैसा करनेवाले के अनुमोदे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९९-१००
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक, गृहस्थ, पारिहारिक या अपारिहारिक के साथ (अपने उपाश्रय-वसति की हद) बाहर विचारभूमि' मल, मूत्र आदि के लिए जाने कि जगह या विहारभूमि' स्वाध्याय के लिए की जगह में प्रवेश करे या वहाँ से बाहर नीकले, उक्त अन्य तीर्थिक आदि चार के साथ एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करे । यह काम दूसरों से करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०१-१०२
जो साधु-साध्वी अनेक प्रकार का आहार अलग-अलग तरह के पानी पड़िगाहे यानि ग्रहण करे फिर मनोज्ञ, वर्ण, गंध, रस आदि युक्त आहार पानी खाए, पीए और अमनोज्ञ-वर्ग आदि आहार-पानी परठवे । सूत्र- १०३
जो साधु-साध्वी मनोज्ञ-शुभ वर्ण, गंध आदि युक्त उत्तम तरह के अनेकविध आहार आदि लाकर इस्तमाल करे, (खाए-पीए) फिर बचा हुआ आहार पास ही में रहे जिनके साथ मांडलि व्यवहार हो ऐसे, निरतिचार चारित्र वाले समनोज्ञ साधर्मिक (साधु-साध्वी) को बिना पूछे, न्यौता दिए बिना परठवे, परठवावे या परठवनावाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १०४-१०५
जो साधु-साध्वी सागारिक मतलब सज्जात्तर यानि कि वसति का अधिपति या स्थान दाता गृहस्थ, उसका लाया हुआ आहार आदि ग्रहण करे और इस्तमाल करे यह काम खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त। सूत्र-१०६
जो साधु-साध्वी सागारिक यानि कि सज्जात्तर के कुल घर आदि की जानकारी के सिवा, पहले देखे हुए घर हो तो पूछकर तय करने के सिवा और न देखे हुए घर हो तब उस घर की गवेषणा - ढूँढ़े बिना इस तरह से जानने, पूछने या गवेषणा करने के बिना ही आहार ग्रहण करने के लिए वो कुल-घर में प्रवेश करे-करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-१०७
जो साधु-साध्वी श्रावक के परिचय रूप निश्रा का सहारा लेकर असन, पान, खादिम समान चार तरह के आहार में से किसी तरह का आहार, विशिष्ट वचन बोलकर याचना करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
यहाँ निश्रा यानि परिचय अर्थ किया । जिसमें पूर्व का या किसी रिश्ते का इस्तमाल करके स्वजन की पहचान करवाके उसके द्वारा कुछ भी याचना करना । सूत्र- १०८
जो साधु-साध्वी ऋतुबद्धकाल सम्बन्धी शय्या, संथारा (आदि) का पर्युषण के बाद यानि कि चातुर्मास के बाद शर्दी-गर्मी आदि शेषकाल में उल्लंघन करे अर्थात शेषकाल के लिए याचना की गई शय्या. संथारा. आदि उसकी समय मर्यादा परी होने के बाद भी इस्तमाल करे, करवाए या उसकी अनमोदना करे तो प्रायश्चि
यहाँ संवत्सरी से लेकर ७० दिन के कल्प को लेकर बताया है । यानि संवत्सरी पूर्व विहार चालू हो लेकिन मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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