Book Title: Agam 34 Nishith Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 43
________________ आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ' उद्देशक/सूत्र से हिलाकर, विंझणा या पंखे के द्वारा, घुमा-फिराकर, पत्ता-पत्ते का टुकड़ा, शाखा-शाखा का टुकड़ा-मोरपिंच्छ या मोरपिच्छ का विंझन, वस्त्र या वस्त्र का टुकड़ा या हाथ से हवा फेंककर, फूंककर ठंड़े किए हो उसे दे (संक्षेप में कहा जाए तो अति उष्ण ऐसे अशन आदि ऊपर कहे गए किसी तरह ठंड़े किए गए हो वो लाकर कोई वहोरावे तब जो साधु-साध्वी) उसे ग्रहण करे-करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४० जो साधु-साध्वी आँटा, पीष्टोदक, चावल, घड़ा, तल, तुष, जव, ठंड़ा किया गया लोहा या कांजी उसमें से किसी धोवाण या शुद्ध उष्ण पानी कि जो तत्काल धोया हआ यानि कि तैयार किया गया हो, जिसमें से खट्टापन गया न हो, अपरिणत या पूरी तरह अचित्त न हुआ हो, पूरी तरह अचित्त नहीं लेकिन मिश्र हो कि जिसके वर्ण आदि स्वभाव बदला न हो ऐसा पानी ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४१ जो साधु (साध्वी) अपने शरीर लक्षण आदि को आचार्य पद के योग्य बताए यानि आचार्य पद के लिए योग्य ऐसे अपने शरीर आदि का वर्णन करके मैं भी आचार्य बनूँगा वैसा कहे, कहलाए या कहनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२४२-१२४६ जो साधु-साध्वी वितत, तन, धन और झुसिर उस चार तरह के वांजित्र के शब्द को कान से सुनने की ईच्छा से मन में संकल्प करे, दूसरों को वैसा संकल्प करने के लिए प्रेरित करे या वैसा संकल्प करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।। __-भेरी, ढोल, ढोल जैसा वाद्य, मृदंग, (बारह वाद्य साथ बज रहे हो वैसा वाद्य) नंदि, झालर, वल्लरी, डमरु, पुरुषल नाम का वाद्य, सदुक नाम का वाद्य, प्रदेश, गोलुंकी, गोकल इस तरह के वितत शब्द करनेवाले वाद्य, सीतार, विपंची, तूण, बव्वीस, वीणातिक, तुंबवीणा, संकोटक, रुसुक, ढंकुण या उस तरह के अन्य किसी भी तंतवाद्य, ताल, काँसताल, लित्तिका, गोधिका, मकरिका, कच्छवी, महतिका, सनालिका या उस तरह के अन्य घन शब्द करनेवाले वाद्य, शंख, बाँसूरी, वेणु, खरमुखी, परिली, चेचा या ऐसे अन्य तरह के झुषिर वाद्य । (यह सब सुनने की जो ईच्छाप्रवृत्ति) सूत्र - १२४७-१२५८ जो साधु-साध्वी दुर्ग, खाई यावत् विपुल अशन आदि का आदान-प्रदान होता हो ऐसे स्थान के शब्द को कान से श्रवण करने की ईच्छा या संकल्प प्रवृत्ति करे, करवाए, अनुमोदन करे तो प्रायश्चित्त । (उद्देशक-१२ में सूत्र ७६३ से ७७४ उन बारह सूत्र में इन सभी तरह के स्थान की समझ दी है । इस प्रकार समझ लेना । फर्क केवल इतना कि बारहवे उद्देशक में यह वर्णन चक्षु इन्द्रिय सम्बन्ध में था यहाँ उसे सुनने की ईच्छा या संकल्पना दोष समान मानना ।) सूत्र-१२५९ ___जो साधु-साध्वी इहलौकिक या पारलौकिक, पहले देखे या अनदेखे, सुने हुए या अनसुने, जाने हुए या अनजान, ऐसे शब्द के लिए सज्ज हो, रागवाला हो, वृद्धिवाला हो या अति आसक्त होकर जो सज्ज हुआ है उसकी अनुमोदना करे। इस प्रकार उद्देशक-१७ में बताए गए किसी भी दोष का जो किसी साधु-साध्वी खुद सेवन करे, दूसरों से सेवन करवाए, यह दोष सेवन करनेवाले की अनुमोदना करे तो उसे चातुर्मासिक परिहारस्थान उद्घातिक नाम का प्रायश्चित्त आता है जो लघु चौमासी' प्रायश्चित्त नाम से भी पहचाना जाता है। उद्देशक-१७-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 43

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