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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१७ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ११०९ से १२५९ यानि कि कुल-१५१ सूत्र हैं । जिसमें बताए अनुसार किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र-११०९-१११०
जो साधु-साध्वी कुतुहूलवृत्ति से किसी त्रस्त जानवर को तृण, घास, काष्ठ, चर्म, वेल, रस्सी या सूत से बाँधे या बँधे को छोड़ दे, छुड़वा दे, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ११११-११२२
जो साधु-साध्वी कुतुहूलवृत्ति से हार, कड़े, आभूषण, वस्त्र आदि करवाए, अपने पास रखे या धारण करे यानि पहने । यह सब काम खुद करे-दूसरों से करवाए या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(उद्देशक-७ के सूत्र ४७० से ४८१ उन १२ सूत्र में यह सब वर्णन किया है, वे सब बात यहाँ समझ लेना । फर्क इतना कि वहाँ यह सब काम मैथुन ईच्छा से बताए हैं वे यहाँ कुतुहूल वृत्ति से किए हुए जानना-समझना ।) सूत्र- ११२३-११७५
जो कोई साध्वी अन्य तीर्थिक या गृहस्थ के पास साधु के पाँव प्रक्षालन आदि शरीर परिकर्म करवाए, दूसरों को वैसा करने की प्रेरणा दे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे वहाँ से आरम्भ करके एक गाँव से दूसरे गाँव विचरण करते हुए किसी साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर साधु के मस्तक को आच्छादन करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । .....(उपरोक्त ११२३ से ११७५ यानि कि कुल ५३ सूत्र और अब आगे कहलाएंगे वो ११७६ से १२२९ सूत्र हर एक में आनेवाले दोष की विशद् समझ या अर्थ इससे पहले उद्देशक-३ के सूत्र १३३ से १८५ में बताए गए हैं । वो वहाँ से समझ लेना । फर्क केवल इतना कि ११२३ से ११७५ सूत्र में किसी साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर साधु के शरीर के इस प्रकार परिकर्म करवाए ऐसा समझना है और सूत्र ११७६ से १२२९ में किसी साधु इस प्रकार ''साध्वी के शरीर का परिकर्म करवाए'' ऐसा समझना ।) सूत्र- ११७६-१२२९
जो किसी साधु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को कहकर (ऊपर बताए मुताबित) साध्वी के पाँव प्रक्षालन आदि शरीर-परिकर्म करवाए, दूसरों को ऐसा करने के लिए कहे या ऐसा करनेवाले साधु की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त सूत्र - १२३०-१२३१
जो किसी साध समान सामाचारीवाले अपनी वसति में आए हए साध को या साध्वी समान सामाचारीवाले स्व वसति में आए साध्वी को, निवास यानि कि रहने की जगह होने के बाद भी स्थान यानि कि ठहरने के लिए जगह न दे, न दिलाए या न देनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३३-१२३४
जो साधु-साध्वी माले पर से (माला-ऊपर हो, भूमिगृह में हो या मॅच पर से उतारा हुआ), बड़ी कोठी में से, मिट्टी आदि मल्हम से बँध किया ढक्कन खोलकर लाया गया अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३५-१२३८
जो साधु-साध्वी सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि या वनस्पति पर (या साथ में) प्रतिष्ठित किए हुए या रखे हुए अशन, पान, खादिम, स्वादिम समान आहार ग्रहण करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - १२३९
जो साधु-साध्वी अति उष्ण ऐसे अशन आदि आहार कि जो मुख से वायु से - सूर्प यानि किसी पात्र विशेष
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)" आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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