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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, 'निशीथ'
उद्देशक/सूत्र भी अपने संघाड़ा के साधु (या साध्वी) देवें, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे, उसके संघाड़ा के साधु (या साध्वी) का स्वीकार करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २३३
जो साधु-साध्वी सचित्त पानी से भीगे हुए हाथ, मिट्टी का पात्र, कड़छी या किसी भी धातु का पात्र (मतलब सचित्त, पानी-अपकाय के संसर्गवाले) अशन-पान, खादिम, स्वादिम उन चार में से किसी भी तरह का आहार ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- २३४
उपरोक्त सूत्र २३३ में बताने के अनुसार उस तरह कुल २१ भेद जानने चाहिए, वो इस प्रकार - स्निग्ध यानि कि कम मात्रा में भी सचित्त पानी का गीलापन हो. सचित्त ऐसी - रज, मिटी, तषार, नमक शिल, पिली मिट्टी, गैरिक धातु, सफेद मिट्टी, हिंगलोक, अंजन, लोघ्रद्रव्य कुक्कुसद्रव्य, गोधूम आदि चूर्ण, कंद, मूल, शृंगबेर (अदरख), पुष्प, कोष्ठपुर (गन्धदार द्रव्य) संक्षेप में कहा जाए तो सचित्त अप्काय (पृथ्वीकाय या वनस्पति काय से संश्लिष्ट ऐसे हाथ या पात्र या कडछी हो और उसके द्वारा किसी अशन आदि चार में से किसी तरह का आहार दे तब ग्रहण करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - २३५-२४९
जो साधु-साध्वी ग्रामारक्षक को, देशारक्षक को, सीमारक्षक को, अरण्यारक्षक को, सर्वरक्षक को (इन पाँच या उसमें से किसी को) वश करे, खुश करे, आकर्षित करे, करवाए या वैसा करनेवाले को अनुमोदे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-२५०-३०२
जो किसी साधु-साध्वी आपस में यानि की साधु-साधु के और साध्वी-साध्वी के बताए अनुसार कार्य करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(यह सर्व कार्य का विवरण उद्देशक-३ के सूत्र-१३३ से १८५ में आता है, उसी ५३ दोष की बात यहाँ समझना) जैसे कि जो कोई साधु-साधु या साध्वी-साध्वी आपस में एक दूसरे के पाँव को एक बार या बार-बार प्रमार्जन करे, साफ करे, (वहाँ से आरम्भ करके) जो कोई साधु-साधु या साध्वी-साध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव विचरते हुए एक दूसरे के सिर को आवरण करे-ढंके (तब तक के ५३ सूत्र तीसरे उद्देशक में कहे अनुसार जानना ।) सूत्र-३०३-३०४
जो साधु-साध्वी मल, मूत्र त्याग करने की भूमि का - अन्तिम पोरिसी से (संध्या समय पहले) पडिलेहण न करे, तीन भूमि यानि तीन मंडल तक या गिनती में तीन अलग-अलग भूमि का पडिलेहण न करे, न करवाए या न करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३०५-३०६
जो साधु-साध्वी एक हाथ से कम मात्रावाली लम्बी, चौड़ी अचित्त भूमि में (और शायद) अविधि से (प्रमार्जन या प्रतिलेखन किए बिना, जीवाकुल भुमि में) मल-मूत्र का त्याग करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे। सूत्र-३०७-३०८
जो साधु-साध्वी मल-मूत्र त्याग करने के बाद मलद्वार को साफ न करे, बांस या वैसी लकड़े की चीर, ऊंगली या धातु की शलाखा से मलद्वार साफ करे, करवाए या करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ३०९-३१२
जो साधु-साध्वी मल-मूत्र का त्याग करने के बाद मलद्वार की शुचि न करे, केवल मलद्वार की ही शुद्धि करे, (हाथ या अन्य जगह पर लगे मत्र की शद्धि न करे) काफी दर जाकर शद्धि करे, नाँव के अ
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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