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आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-७ 'निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ४७० से ५६० इस तरह कुल ९१ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी दोष का त्रिविधे सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारठ्ठाणं अनुग्घातियं' नाम का प्रायश्चित्त आता है । इस प्रायश्चित्त का अपर नाम 'गुरु चौमासी' प्रायश्चित्त है। सूत्र - ४७०-४८१
जो साधु (स्त्री के साथ) साध्वी (पुरुष के साथ) मैथुन सेवन की ईच्छा से तृण, मुन (एक तरह का तृण), बेल, मदनपुष्प, मयुर आदि के पींच्छ, हाथी आदि के दाँत, शींग, शंख, हड्डियाँ, लकड़े, पान, फूल, फल, बीज, हरित वनस्पति की माला करे, लोहा, ताम्र, जसत्, सीसुं, रजत, सुवर्ण के किसी आकार विशेष, हार, अर्द्धहार, एकसरो हार, सोने के हाथी दाँत के रत्न का-कर्केतन के कड़ले, हाथ का आभरण, बाजुबँध, कुंडल, पट्टे, मुकुट, झूमखे, सोने का सूत्र, मृगचर्म, ऊन का कंबल, कोयर देश का किसी वस्त्र विशेष या इस तीन में से किसी का आच्छादन, श्वेत, कृष्ण, नील, श्याम, महाश्याम उन चार में से किसी मृग के चमड़े का वस्त्र, ऊंट के चमड़े का वस्त्र या प्रावरण, शेर-चित्ता, बंदर के चमड़े का वस्त्र, श्लक्ष्ण या स्निग्ध कोमल वस्त्र, कपास वस्त्र पटल, चीनी वस्त्र, रेशमी वस्त्र, सोनेरी सोना जड़ित या सोने से चीतरामण किया हुआ वस्त्र, अलंकारयुक्त-अलंकार चित्रित या विविध अलंकार से भरा वस्त्र, संक्षेप में कहा जाए तो किसी भी तरह के हार, कड़े, आभूषण या वस्त्र बनाए, रखे, पहने या उपभोग करे, दूसरों के पास यह सब कराए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४८२
जो साधु मैथुन की ईच्छा से स्त्री की किसी इन्द्रिय, हृदयप्रदेश, उदर (नाभि युक्त) प्रदेश, स्तन का संचालन करे, करवाए या अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र-४८३-५३५
जो साधु-साध्वी मैथुन की ईच्छा से आपस के पाँव को एक बार या बार-बार प्रमार्जन करे-(इस सूत्र से आरम्भ करके) जो साधु-साध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए मैथुन की ईच्छा से एक दूजे के मस्तक को आवरण-आच्छादन करे ।
(यहाँ ४८३ से ५३५ यह ५३ सूत्र तीसरे उद्देशक में दिए सूत्र १३३ से १५४ के अनुसार हैं । इसलिए इस ५३ सूत्र का विवरण उद्देशक-३ अनुसार समझ लेना । विशेष केवल इतना की मैथुन की ईच्छा से यह सर्व क्रिया "आपस में की गई। समझना ।) सूत्र-५३६-५४७
___ जो साधु मैथुन सेवन की ईच्छा से किसी स्त्री को (साध्वी हो तो पुरुष को) सचित्त भूमि पर, जिसमें धुण नामके लकड़े को खानेवाले जीव विशेष का निवास हो, जीवाकुल पीठफलक-पट्टी हो, चींटी आदि जीवयुक्त स्थान, सचित्त बीजवाला स्थान, हरितकाययुक्त स्थान, सूक्ष्म हिमकणवाला स्थान, गर्दभ आकार कीटक का निवास हो, अनन्तकाय ऐसी फूग हो, गीली मिट्टी हो या जाली बनानेवाला खटमल, मकड़ा हो यानि कि धुण आदि रहते हो ऐसे स्थान में, धर्मशाला, बगीचा, गृहस्थ के घर या तापस-आश्रम में, अपनी गोदी में या बिस्तर में (संक्षेप में कहा जाए तो पृथ्वी-अप्-वनस्पति और त्रस काय की विराधना जहाँ मुमकीन है ऐसे ऊपर अनुसार स्थान में) बिठाए या सुलाकर बगल बदले, अशन, पान, खादिम, स्वादिम रूप आहार करे, करवाए या यह क्रिया खुद करे, करवाए या अनुमोदना करे । सूत्र-५४८-५५०
जो साधु मैथुन की ईच्छा से स्त्री की (साध्वी पुरुष की) किसी तरह की चिकित्सा करे, अमनोज्ञ ऐसे पुद्गल (अशुचिपुद्गल) शरीर में से बाहर नीकाले मतलब शरीर शुद्धि करे, मनोज्ञ पुद्गल शरीर पर फेंके यानि
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद”
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