________________
आगम सूत्र ३४, छेदसूत्र-१, निशीथ'
उद्देशक/सूत्र उद्देशक-१५ निसीह'' सूत्र के इस उद्देशक में ९०५ से १०५८ इस तरह से कुल १५४ सूत्र हैं । जिसमें से किसी भी
दोष
का त्रिविध से सेवन करनेवाले को चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घातियं नाम का प्रायश्चित्त आता है। सूत्र - ९०५-९०८
जो साधु-साध्वी दूसरे साधु-साध्वी को आक्रोशयुक्त, कठिन, दोनों तरह के वचन कहे या अन्य किसी तरह की अति आशातना करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र- ९०९-९१६
जो साधु-साध्वी सचित्त आम खाए, या चूसे, सचित्त आम, उसकी पेशी, टुकड़े, छिलके के भीतर का हिस्सा खाए, या चूसे, सचित्त का संघट्टा होता हो वहाँ रहा आम का पेड़ या उसकी पेशी, टुकड़े, छिलके आदि खाए या चूसे, ऐसा खुद करे, दूसरों के पास करवाए या ऐसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । सूत्र - ९१७-९७०
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास अपने पाँव एक या बार बार प्रमार्जन करे, दूसरों को प्रमार्जन करने के लिए प्रेरित करे, प्रमार्जन करनेवाले की अनुमोदना करे । (इस सूत्र से आरम्भ करके) जो साधुसाध्वी एक गाँव से दूसरे गाँव विचरनेवाले अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के पास अपने सिर का आच्छादन करवाए, दूसरों को वैसा करने के लिए प्रेरित करे या वैसा करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । (उद्देशक-३ में सूत्र१३३ से १८५ में यह सब वर्णन है । यानि ९१८ से ९७० सूत्र का विवरण इस प्रकार समझ लेना, फर्क केवल इतना है कि उद्देश तीन में यह काम खुद करे ऐसा बताते हैं । इस उद्देशक में यह कार्य अन्य के पास करवाए ऐसा समझना ।) सूत्र - ९७१-९७९
जो साधु-साध्वी धर्मशाला, बगीचा, गाथापति के घर या तापस के निवास आदि में मल-मूत्र का त्याग करे, करवाए, करनेवाले की अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त ।
(उद्देशक-५ में सूत्र ५६१ से ५६९ में धर्मशाला से आरम्भ करके महागृह तक वर्णन किया है । इस प्रकार यहाँ इस नौ सूत्र में वर्णन किया है । इसलिए नौ सूत्र का वर्णन उद्देशक-५ अनुसार जान लेना-समझ लेना । फर्क केवल इतना कि यहाँ धर्मशाला आदि स्थान में मल-मूत्र परठवे ऐसा समझना ।) सूत्र - ९८०-९८१
जो साधु-साध्वी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को अशन-पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र-पात्र, कंबल, रजोहरण दे, दिलाए या देनेवाले की अनुमोदना करे । सूत्र - ९८२-१००१
जो साधु-साध्वी पासत्था को अशन आदि आहार, वस्त्र, पात्र, कंबल, रजोहरण दे या उनके पास से ग्रहण करे, करवाए, अनुमोदना करे तो प्रायश्चित्त । उसी प्रकार ओसन्न, कुशील, नीतिय, संसक्त को आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण दे या उनके पास से ग्रहण करे तो प्रायश्चित्त ।
(पासत्था से संसक्त तक के शब्द की समझ, उद्देशक-१३ के सूत्र ८३० से ८४७ तक वर्णित की गई है। इस प्रकार जान-समझ लेना ।) सूत्र- १००२
जो साधु-साध्वी किसी को हमेशा पहनने के, स्नान के, विवाह के, राजसभा के वस्त्र के अलावा कुछ माँगने से प्राप्त होनेवाला या निमंत्रण से पाया गया वस्त्र कहाँ से आया या किस तरह तैयार हुआ ये जाने सिवा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(निशीथ)” आगम सूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 38