Book Title: Agam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Nandi Terapanth Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya Publisher: Jain Vishva BharatiPage 10
________________ सानुवाद आगम-ग्रन्थों की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकाशित आगम विद्वानों द्वारा समादृत हो चुके १. दसवेआलियं ४. ठाणं २. सूयगडो ( भाग १, भाग २ ) ५. समवाओ ३. उत्तराणि (भाग १, भाग २ ) ६. अणुओगदारा इसी श्रृंखला में 'नन्दी' का प्रस्तुत प्रकाशन पाठकों के हाथों में पहुंच रहा है। मूल संशोधित पाठ, उसकी संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद, प्रत्येक प्रकरण के विषय प्रवेश की विस्तृत टिप्पणियों से अलंकृत 'नन्दी' का यह प्रकाशन आगम प्रकाशन के क्षेत्र में अभिनव स्थान प्राप्त करेगा, नहीं होता। 1 प्रकाशकीय प्रस्तुत आगम में वैसे तो कोई विभाग नहीं है लेकिन अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इसे पांच प्रकरणों में विभक्त किया गया है। इस तरह प्रकरणों में विभाजित इस आगम के अन्त में आठ परिशिष्ट हैं जो ज्ञान वृद्धि की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी हैं। वे परिशिष्ट इस प्रकार हैं कार्यशील रहे हैं। १. अणुण्णानंदी (सानुवाद) २. जोगनंदी (सानुवाद) ३. कथा ७. ४. विशेषनामानुक्रम देशी शब्द ८. प्रयुक्त ग्रंथ सूची प्रस्तुत प्रकाशन के पूर्व सानुवाद आगम- प्रकाशन की योजना के अन्तर्गत आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा रचित 'आचारांग - भाष्यम्' सन् १९९४ में प्रकाशित हो चुका है। उक्त प्रकाशन के बाद भगवई विआहपण्णत्ती, ( खण्ड १ ), ( शतक १, २) मूलपाठ संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा परिशिष्ट, शब्दानुक्रम आदि जिनदासमहत्तर कृत चूर्णि एवं अभयदेवसूरिकृत वृत्ति सहित प्रकाशित हुआ । पूर्व प्रकाशनों की तरह ही वाचना- प्रमुख गणाधिपति तुलसी के तत्त्वावधान में प्रस्तुत एवं आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा सम्पादित ये प्रकाशन विद्वानों द्वारा भूरि-भूरि प्रशंसित हुए हैं। प्रस्तुत आगम के प्रस्तुतीकरण में इन साध्वियों का प्रचुर योगदान रहा है-साध्वीजी, साध्वी मुदिताजी, साध्वी शुभ्रयशाजी और साध्वी विश्रुतविभाजी । मुनिश्री हीरालालजी के अत्यधिक श्रमसाध्य बहुमूल्य योगदान की किन शब्दों में प्रशंसा की जाए। वे धूरी की तरह जैन विश्व भारती संस्थान, लाडनूं दिनांक १६ अक्टूबर, १९९७ Jain Education International दृष्टि से आमुख और ऐसा लिखने में संकोच ५. पदानुक्रम ६. टिप्पण : अनुक्रम ज्ञानमीमांसा प्रस्तुत प्रकाशन को पाठकों के सम्मुख रखते हुए जो प्रसन्नता हो रही है, वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती । विश्वास है, यह प्रकाशन अनुसंधित्सु विद्वानों को अत्यन्त लाभप्रद प्रतीत होगा । For Private & Personal Use Only श्रीचन्द रामपुरिया कुलाधिपति www.jainelibrary.orgPage Navigation
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