Book Title: Agam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra
Author(s): A N Upadhye, Hiralal Jain
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 21
________________ जंबूदीवपण्णत्तिकी प्रस्तावना number; for it is not possible that without number anything can either be conceived or known." एरिस्टाटिल ने वस्तुओं के लक्षणों और संख्याओं के बीच दार्टान्त' आधारित कर, पायथेगोरियन सिद्धान्त को निम्न लिखित शब्दों में व्यक्त किया था "They thougt they found in numbers, more than in fire, earth or water, many resemblances to things which are and become; thus such and such an attribute of numbers is justice, another is soul and mind, another is opportunity, and so on and again they saw in number the attributes & ratios of the musical scales. Since, then, all things seemed in their whole nature to be the first things in the whole of nature, they supposed the elements of numbers to be the elements of all tbinge, and the whole heaven to be a musical scale and a number.3» __ जहां यूक्लिड ने बिन्दु को भाग रहित, विमाओं रहित कहकर छोड़ दिया है, वहां पायथेगोरियन परिभाषा, "monad having position" बहुत कुछ वैज्ञानिक प्रतीत होती है। प्लेटो द्वारा प्रतिपादित "चौडाई रहित श्रेणि breadthless length" की परिभाषा प्लेटो ने स्वयं दी है. "That of which the middle covers the end" (i. o. to an eye placed at either end and looking along the straight line);......" . रूप ( Figure) की परिभाषा मनोरंजक है, जिसे सुकरात (Soorates) ने इस प्रकार कहा et us regard as figure that which alone of existing things is associated with colour. यहाँ रंग (Colour) के विषय में विवाद उठने पर, सुकरातका उत्तर यह है, "It will be admitted that in geometry there are such things as what we call a surface or & solid, &s on; from these examples we may learn what we mean by figure; figure is that in which & solid ends, or figure is the limit (or extremity, nepas) of a solid." repas शब्द का उच्चारण परस होता है। यहां चौड़ाई रहित श्रेणि के समान ही एकानन्तकी परिभाषा वीरसेन ने दी है। रूपी अथवा मर्तिक पदार्थों (पुदगल) के विषय में अवधारणाएं पठनीय है। इस प्रकार, यूनानी ज्यामिति में परिभाषाये, स्वसिद्ध, उपधारणायें, आधारभूत थीं जिनके विषय में यही कहा जाता है कि उन्हें पायथेगोरियन वर्ग ने खोजा था। जिस प्रकार जैनाचार्यों ने स्वलिखित ग्रंथों में आचार्य परम्परागत ज्ञान का ही आधार सर्वत्र लिया है, उसी प्रकार पायथेगोरियन वर्ग ही आविष्कारकों का नाम हुआ करता था। Heath, vol. I, p. 67. २ इस सम्बन्ध में धवलाकार वीरसेन द्वारा उदधृत अंक एवं रैखिकीय का निरूपण देखने योग्य है। षटखंडागम (पु. १०)४, २, ४, १७३, पृ. ४२१-४३०, (१९५४)। तेजस्कायिक, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, जीवराशि की गणना भी त्रिलोक-प्रज्ञप्ति आदि ग्रंथों में विस्तृत रूप से वर्णित है। ३ Heath, vol. 1, So. 68. ४ Heath, vol. I. S0.293. ५ Heath, vol. I, So. 293. ६.ति. प. १,८४. ७Coolidge2, p. 28. Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only

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