Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ नन्दीसूत्र में न तो दश अध्ययनों का उल्लेख है और न उनके नामों का ही निर्देश है। समवायांग और तत्वार्थराजकार्तिक में जिन अध्ययनों के नामों का निर्देश है वे अध्ययन वर्तमान में उपलब्ध अन्तकदृशांग में नहीं हैं। नन्दीसूत्र में वही वर्णन है जो वर्तमान में अंतकृद्दशा में उपलब्ध है / इससे यह सिद्ध है कि वर्तमान में अन्तकृद्दशा का जो रूप प्राप्त है वह आचार्य देववाचक के समय से पूर्व का है। वर्तमान में अन्तकृद्दशा में पाठ वर्ग हैं और प्रथम वर्ग के दश अध्ययन हैं किन्तु जो नाम स्थानाङ्ग तत्त्वार्थराजवार्तिक व अंगपण्णत्ति में आये हैं उनसे पृथक हैं। जैसे गौतम, समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल, कांपिल्य, अक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु / प्राचार्य अभयदेव ने स्थानाङ्ग वृत्ति में इसे वाचनान्तर कहा है। इससे यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृद्दशा समवायांग में वरिणत वाचना से अलग है। कितने ही विज्ञों ने यह भी कल्पना की है कि पहले इस आगम में उपासकदशा की तरह दश ही अध्ययन होंगे, जिस तरह उपासकदशा में दश श्रमणोपासकों का वर्णन है इसी तरह प्रस्तुत प्रागम में भी दश अर्हतों की कथाएं प्राई होंगी। अन्तकद्दशा में एक श्रु तस्कन्ध, पाठ वर्ग, 90 अध्ययन, पाठ उद्देशनकाल, पाठ समुदै शन काल और परिमित वाचनाएं हैं। इस में अनुयोगद्वार, वेढा, श्लोक, नियुक्तियां, संग्रहरिणयां एवं प्रतिपत्तियां संख्यात, संख्यात हैं। इस में पद संख्यात और अक्षर संख्यात हजार बताये गये हैं। वर्तमान में उपलब्ध प्रस्तुत प्रागम में 900 श्लोक हैं, पाठ वर्ग हैं। उन में क्रमशः दश, पाठ, तेरह, दश, दश, सोलह, तेरह और दश अध्ययन हैं। प्रथम दो वर्गों में गौतम आदि वृष्णिकुल के अठारह राजकुमारों की तपोमय साधना का उत्कृष्ट वर्णन है। उन में प्रथम दश राजकुमारों को दीक्षापर्याय बारह-बारह वर्ष की है, अवशेष पाठ राजकुमारों की दीक्षापर्याय सोलह-सोलह वर्ष प्रतिपादित की गई है। ये सभी राजकुमार श्रमणधर्म ग्रहण कर गरण रत्न संवत्सर जैसे उन तप की आराधना करते हैं और जीवन की सांध्यवेला में एक मास की संलेखना कर मुक्ति को वरण करते हैं। प्रथम वर्ग से लेकर पांचवें वर्ग तक में श्रीकृष्ण वासूदेव का वर्णन पाया है। श्रीकृष्ण वासुदेव जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में अत्यधिक चचित रहे हैं। वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में वासुदेव, विष्णु, नारायण, गोविन्द प्रति उन के अनेक नाम प्रचलित हैं। श्रीकृष्ण बसुदेव के पुत्र थे। इसलिये वे वासुदेव कहलाये। महाभारत शान्तिपर्व में कृष्णा को विष्ण का रूप बताया है,२० गीता में श्रीकृष्ण विष्ण के पूर्ण अवतार हैं / 21 महाभारतकार ने उन्हें नारायण मानकर स्तुति की है। वहां उन के दिव्य और भव्य मानवीय स्वरूप के दर्शन होते हैं / 22 शतपथ, ब्राह्मरण में उन के नारायण नाम का उल्लेख हया है। 23 तैत्तिरीयारण्यक में उन्हें सर्वगुणसम्पन्न कहा है।२४ महाभारत के नारायणीय उपाख्यान में नारायण को सर्वेश्वर का रूप दिया है। मार्कण्डेय ने युधिष्ठिर को यह बताया है कि जनार्दन ही स्वयं नारायण हैं। महाभारत में अनेक स्थलों पर उनके नारायण रूप का निर्देश है / 25 पद्मपुराण, वायुपुराण, वामनपुराण, कूर्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवंशपुराण 19. ततो वाचनान्तरापेक्षारणीमानीति सम्भावयामः / ---स्थानाङ्गवत्ति पत्र 483. 20. महाभारत-शान्तिपर्व, अ. 48. 21. श्रीमद्भगवद्गीता। 22. महाभारत-अनुशासन पर्व, 147:19-20, 23. शतपथब्राह्मण, 13 / 3 / 4 24. तैत्तिरीयारण्यक, 10 / 11. 25. महाभारत-वनपर्व 16-47, उद्योग पर्व 491. [24] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org