Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 78 अन्तकृद्दशा सोमिल द्वारा उपसर्ग २२-इमं च णं सोमिले माहणे सामिधेयस्स अट्ठाए बारवईओ नयरीनो बहिया पुव्वणिग्गए / समिहाप्रो य द य कुसे य पत्तामोडं य गेण्हइ, गेण्हित्ता तो पडिणियत्तइ, पडिणियत्तित्ता महाकालस्स सुसाणस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे-वीईवयमाणे संझाकालसमयंसि पविरलमणुस्संसि गयसुकुमालं अणगारं पासइ, पासित्ता तं वरं सरइ, सरित्ता आसुरुत्ते रुटू कविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे एवं वयासी- "एस णं भो ! से गयसुकमाले कमारे अपस्थिय-जाव [पस्थिए, दुरंत-पंत-लक्खणे, हीणपुण्णचाउद्दसिए, सिरि-हिरि-धिइ-कित्ति] परिवज्जिए, जेणं मम ध्यं सोमसिरीए भारियाए अत्तयं सोम दारियं अदिट्टदोसपत्तियं कालवत्तिणि विप्पजहित्ता मुंडे जाव पवइए। तं सेयं खलु मम गयसुकुमालस्स कुमारस्स वेरनिज्जायणं करेसए; एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता दिसापडिलेहणं करेइ, करेत्ता सरसं मट्टियं गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव गयसुकुमाले अणगारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गयसुकमालस्स अणगारस्स मत्थए मट्टियाए पालि बंधइ, बंधित्ता जलंतीओ चिययानो फुल्लियकिसुयसमाणे खरिंगाले कहल्लेणं' गेण्हइ, गेण्हित्ता गयसुकमालस्स अणगारस्स मत्थए पक्खिवइ, पक्खिवित्ता भीए तत्थे तसिए उविग्गे संजायभए तो खिप्पामेव अवक्कमइ, अवक्कमित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / __ इधर सोमिल ब्राह्मण समिधा (यज्ञ की लकड़ी) लाने के लिये द्वारका नगरी के बाहर सुकुमाल अणगार के श्मशानभूमि में जाने से पूर्व ही निकला था। वह समिधा, दर्भ, कुश, डाभ एवं में पत्रामोडों को लेता है। उन्हें लेकर वहाँ से अपने घर की तरफ लौटता है। लौटते समय महाकाल श्मशान के निकट (न अति दूर न अति सन्निकट) से जाते हुए संध्या काल की बेला में, जबकि मनुष्यों का गमनागमन नहीं के समान हो गया था, उसने गजसुकुमाल मुनि को वहाँ ध्यानस्थ खड़े देखा / उन्हें देखते ही सोमिल के हृदय में वैर भाव जागृत हुआ / वह क्रोध से तमतमा उठता है और मन ही मन इस प्रकार बोलता है अरे ! यह तो वही अप्रार्थनीय का प्रार्थी (मृत्यु की इच्छा करने वाला), [दुरन्त-प्रान्त-लक्षण वाला, पुण्यहीन चतुर्दशी में उत्पन्न हुआ ह्री और श्री (लज्जा तथा लक्ष्मी) से परिजित, गजसुकुमाल कुमार है, जो मेरी सोमश्री भार्या की कुक्षि से उत्पन्न, यौवनावस्था को प्राप्त निर्दोष पुत्री सोमा कन्या को अकारण ही त्याग कर मुडित हो यावत् श्रमण बन गया है ! इसलिये मुझे निश्चय ही गजसूकुमाल से इस वैर का बदला लेना चाहिये। इस प्रकार वह सोमिल सोचता है और सोचकर सब दिशाओं की अोर देखता है कि कहीं से कोई देख तो नहीं रहा है / इस विचार से चारों ओर देखता हुआ पास के ही तालाब से वह गीली मिट्टी लेता है, लेकर गजसुकुमाल मुनि के मस्तक पर पाल बाँधता है / पाल बाँधकर जलती हुई चिता में से फूले हुए किंशुक (पलाश) के फूल से समान लाल-लाल खेर के अंगारों को किसी खप्पर (ठोकरे) में लेकर उन दहकते हुए अंगारों को गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख देता है। रखने के बाद इस भय से कि कहीं उसे कोई देख न ले, भयभीत होकर घबरा कर, त्रस्त होकर एवं उद्विग्न होकर वह वहाँ से शीघ्रतापूर्वक पीछे की ओर हटता हुआ भागता है। वहाँ से भागता हुआ बह सोमिल जिस ओर से आया था उसी ओर चला जाता है। 1. पाठान्तर-कभल्लेणं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org