Book Title: Agam 08 Ang 08 Anantkrut Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Divyaprabhashreeji, Devendramuni, Ratanmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ से, पंचम वर्ग] [107 'अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध करेह / ' इसके बाद कृष्ण वासुदेव ने पद्मावती देवी को पट्ट पर बिठाया और एक सौ आठ सुवर्णकलशों से, [एक सौ आठ रजत-कलशों से, एक सौ आठ सुवर्ण-रजतमय कलशों से, एक सौ आठ मणिमय कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-मणि के कलशों, एक सौ साठ रजत-मणि के कलशों, एक सौ आठ स्वर्ण-रजत-मणि के कलशों और एक सौ आठ मिट्टी के कलशों सेइस प्रकार पाठ सौ चौंसठ कलशों में सब प्रकार का जल भर कर तथा सब प्रकार की मृत्तिका सब प्रकार के पुष्पों से, सब प्रकार के गंधों से, सब प्रकार की मालाओं से, सब प्रकार की औषधियों से तथा सरसों से उन्हें परिपूर्ण करके, सर्वसमृद्धि, द्यु ति तथा सर्व सैन्य के साथ, दुदुभि के निर्घोष की प्रतिध्वनि के शब्दों के साथ उच्चकोटि के निष्क्रमणाभिषेक से अभिषिक्त किया। अभिषेक करके फिर सभी प्रकार के अलंकारों से विभूषित करके हजार पुरुषों द्वारा उठायी जाने वाली शिविका (पालखी) में बिठाकर द्वारका नगरी के मध्य से होते हुए निकले और जहां रैवतक पर्वत और सहस्राम्रवन उद्यान था उस ओर चले / वहां पहुँच कर पद्मावती देवी शिविका से उतरी। तदनन्तर कृष्ण वासुदेव जहां अरिष्टनेमि भगवान् थे वहां आये, पाकर भगवान् को दक्षिण तरफ से तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना-नमस्कार किया, वन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोले "भगवन ! यह पद्मावती देवी मेरी पटरानी है। यह मेरे लिये इष्ट है, कान्त है, प्रिय है, मनोज्ञ है और मन के अनुकूल चलने वाली है, अभिराम है / भगवन् ! यह मेरे जीवन में श्वासोच्छ - वास के समान है, मेरे हृदय को आनन्द देने वाली है। इस प्रकार का स्त्री-रत्न उदुम्बर (गूलर) के पुष्प के समान सुनने के लिये भी दुर्लभ है ; तब देखने की तो बात ही क्या है ? हे देवानप्रिय ! मैं ऐसी अपनी प्रिय पत्नी की भिक्षा शिष्या रूप में आपको देता हूं। आप उसे स्वीकार करें।" ___कृष्ण वासुदेव की प्रार्थना सुनकर प्रभु बोले-'देवानुप्रिय ! तुम्हें जिस प्रकार सुख हो वैसा करो।' ८-तए णं सा पउमावई उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, प्रवक्कमित्ता, सयमेव प्राभरणालंकारं प्रोमुयइ, प्रोमुयित्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव परहा प्ररिट्रणेमी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहं अरिटुर्नाम वंदई नसइ, बंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-प्रालित्ते जाव' तं इच्छामि णं देवाणुप्पिएहिं धम्ममाइक्खियं / / तए णं अरहा अरिटणेमी पउमावई देवि सयमेव पवावेइ पवावेत्ता सयमेव जविखणोए अज्जाए सिस्सिणित्ताए दलयइ / तए णं सा जक्खिणी अज्जा पउमावई देवि सयमेव जावर संजमियव्वं / तए णं सा पउमावई अज्जा जाया। इरियासमिया जाव [भासासमिया एसणासमिया प्रायाण-भंड-मत्त-णिक्खेवणासमिया उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिट्ठावणियासमिया मणसमिया वइसमिया कायसमिया मणगुत्ता वइगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिदिया] गुत्तबंभयारिणी। तए णं सा पउमावई अज्जा जक्खिणीए अज्जाए अंतिए सामाइयमाइयाइं एकारस अंगाई अहिज्जइ, बहूहि चउत्थ-छट्ठमन्दसम-दुवालसहि मासद्धमासखमहि विविहेहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणी विहरई। 1-2. वर्ग 5, मूत्र 8. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org